सिर्फ नक्सल ही समस्या नहीं है

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शम्स तमन्ना

देश के कुछ राज्य ऐसे हैं जिनके बारे में आप आम आदमी से भी पूछिए तो वह किसी मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह उसका इतिहास, भूगोल और वर्तमान स्थिति बयान कर देगा। हालांकि उसका यह सामान्य ज्ञान मीडिया के तथ्यों पर आधारित होता है। जो मीडिया बताती है आम आदमी उसे ही सच मानता है। जबकि सिक्के के दूसरे पहलू में भी बहुत सी कहानियां छुपी होती हैं। छत्तीसगढ़ के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। आप देश के आम नागरिक से इस राज्य की चर्चा कीजिए तो उसे केवल यहां नक्सल समस्या ही नजर आएगी। नक्सल प्रभावित होने के कारण इस राज्य में जैसे सबकुछ ठप्प हो गया है। ऐसा लगता है कि यहां नक्सल के अलावा और कोई समस्या ही नहीं है।

यह सच है कि छत्तीसगढ़ में नक्सल एक बड़ी समस्या है। जिसके कारण यहां का विकास प्रभावित हो रहा है। बहुत से उद्योग धंधे फलने फूलने से डरते हैं। जबकि प्रकृति ने इस राज्य को अपनी भरपूर नेमतों से नवाजा है। जिसका उपयोग किया जाए तो न सिर्फ यह राज्य देश के अन्य राज्यों से कहीं ज्यादा विकसित हो जाएगा बल्कि देश की आर्थिक प्रगति में भी इसका सबसे बड़ा योगदान माना जाएगा। लेकिन नक्सल समस्या के कारण इसके विकास का पहिया धीमा ही रहता है। ऐसे में यदि कोई इस बात से इंकार करता है कि नक्सल यहां कोई समस्या नहीं है तो यकीनन वह इस विषय से भटकता हुआ नजर आएगा। लेकिन सिर्फ नक्सल ही यहां एक समस्या है तो यह सोंच भी गलत है। छत्तीसगढ़ में नक्सल के अलावा और भी कई समस्याएं मौजूद हैं। यह समस्या आम आदमी की समस्या है। जो उसके जीवन में रोजमर्रा के साथ जुड़ी हुई हैं। अन्य राज्यों की तरह यहां भी शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, रोजगार, प्रदूषण, सड़क, बिजली, पानी और आजीविका जैसे कई तरह के सामाजिक मुद्दे सर उठाए खड़े रहते हैं जिनसे एक आम आदमी को दो चार होना पड़ता है। अन्य राज्यों की तरह यहां का भी आम आदमी अपनी समस्या के निदान के लिए सरकार से सहायता की उम्मीद करता है। अन्य राज्यों की सरकारों की तरह यहां की सरकार भी उनके लिए योजनाएं बनाती है। अन्य राज्यों की तरह यहां भी भ्रश्टाचार की जड़ ने सामाजिक जि़दगी को कठिन डगर पर खड़ा कर दिया है। ऐसे में केवल नक्सल को ही एकमात्र समस्या बताना यहां के आम नागरिक के साथ अन्याय होगा।

छत्तीसगढ़ में कई ऐसे सामाजिक मुद्दे हैं जिनका सीधा संबंध आम जनजीवन से जुड़ा हुआ है। वैसे तो आदिवासी बहुल इस राज्य में गोंडी, हल्बी और छत्तीसगढ़ी भाषा बोली जाती है लेकिन हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या भी काफी है। मध्य भारत का यह क्षेत्र एक नवंबर 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आया था। क्षेत्रफल की दृश्टि से यह भारत का नौंवा सबसे बड़ा राज्य है। राज्य का लगभग 44 प्रतिशत इलाका वनों से भरा हुआ है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ देश के कुल खनिज उत्पादन का 16 प्रतिशत योगदान देता है। लेकिन यह उत्पादन राज्य के लोगों की जि़दगी को सुधारने में प्रभावी ढ़ंग से कारगर सिद्ध नहीं हो पा रहा है। निवेश के बावजूद राज्य में अब भी बेरोजगारी और मातृ मृत्यु दर चिंताजनक बनी हुई है। गांव तक शासन की योजनाएं तो पहुंची हैं लेकिन उसका सही ढ़ंग से कार्यान्वयन नहीं हो पा रहा है। राज्य सरकार का दावा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस राज्य में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। विषेशकर 108 ऐंबुलेंस सर्विस आम जनजीवन के लिए लाभकारी साबित हुआ है। गांव गांव तक मुफ्त पहुंचाई जा रही इस सर्विस का सबसे ज्यादा लाभ गर्भवती महिलाओं को हो रहा है। लेकिन जागरूकता में कमी इसकी शत प्रतिशत सफलता में बाधक बन रही है। राज्य में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 54 है। जबकि मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख पर 335 है। जो अब भी चिंता के स्तर पर बना हुआ है। हालांकि राज्य का मितानीन प्रोग्राम की सफलता ने ही देश को आशा कार्यकर्ता का सूत्र दिया है। जमीनी स्तर पर आज भी राज्य में मितानीन प्रोग्राम से अधिक सफल कोई और कार्यक्रम नहीं बन पाया है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र कांकेर जिला के भानुप्रतापपुर ब्लॉक की रहने वाली आबिदा कुरैशी पिछले कई वर्षों से मितानीन प्रोग्राम की ब्लॉक कार्डिनेटर पद पर कार्य कर रही हैं। वह कहती हैं कि जितनी इज्जत हमें मिलती है उतनी ब्लॉक के किसी बाबू साहब को भी नहीं दिया जाता है। बड़े से बड़े अफसर भी जब गांव का दौरा करते हैं तो पहले मितानीन को ही बुलाया जाता है। इसी ब्लाॅक के बैजनपूरी पंचायत के सरपंच जीवन कुमार दर्रो मितानीन को गांव में संवाद का सबसे सशक्त माध्यम मानते हैं। उनका कहना है कि गांव में जब किसी योजना का प्रचार करना होता है तो सबसे पहले मितानीन को ही बताया जाता है क्योंकि गांव वालों को उनपर सबसे ज्यादा भरोसा होता है।

राज्य में शिक्षा का स्तर अन्य राज्यों की अपेक्षाकृत थोड़ा अच्छा है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में महिला साक्षरता की दर अब भी कम है। विषेशकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इसका प्रतिशत और भी कम देखने को मिलता है। इसकी मुख्य वजह इन इलाकों में शिक्षकों की कमी है। कई शिक्षक ऐसे हैं जिनकी पोस्टिंग इन इलाकों में होती है लेकिन वह यहां आना नहीं चाहते हैं। इस संबंध में एक उदाहरण हमें भानुप्रतापपुर ब्लॉक के बैजनपुरी पंचायत में ही देखने को मिला। जहां माध्यमिक विद्यालय में शिक्षकों की कमी के कारण 12वीं पास स्कूल का चपरासी बच्चों को पढ़ाने का काम करता है। इस पंचायत को सबसे बड़ा फायदा यह है कि यहां प्राथमिक विद्यालय से लेकर 12वीं तक स्कूल है। जिसमें आसपास के कई कोस दूर के बच्चे पढ़ने आते हैं। छठी से बारहवीं तक क्लास एक ही भवन में चलते हैं जिनमें करीब 350 बच्चे हैं। जबकि उन्हें ज्ञान देने वाले केवल 10 टीचर हैं। मिडल स्कूल में सात और हाई स्कूल में 10 पोस्ट खाली हैं। शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए मिडल स्कूल के टीचर हाई स्कूल के बच्चों की क्लास लेते हैं। सरोज देवी की नियुक्ति यहां मिडल स्कूल के बच्चों को अंग्रेजी की तालीम देने के लिए हुई थी। लेकिन हाई स्कूल के बच्चों को ज्यादा वक्त देने के कारण अब वह शायद ही इस क्लास के बच्चों को पढ़ा पाती हैं। स्कूल में शिक्षकों की कमी के कारण ही हाई स्कूल में साइंस और कामर्स की पढ़ाई नहीं हो पा रही है। जिससे इस क्षेत्र में रूचि रखने वाले बच्चों को मजबूरन आर्टस की पढ़ाई करनी पड़ती है।

छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ी समस्या है प्राकृतिक संपदा की लूट के अलावा कृशि योग्य भूमि पर होने वाले फसल की भी है। विषेशकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जहां आदिवासियों किसानों को अपनी ही भूमि पर बेगारों की तरह काम करना होता है। सरकारीतंत्र का दावा है कि उनकी भूमि पर नक्सलियों का जबरन कब्जा है। अपनी भूमि पर किसान मेहनत कर फसल उगाता है और जब फसल काटने की बारी आती है तो नक्सली उसपर कब्जा कर लेते हैं। हालांकि यह बात कितनी सच है इसका अंदाजा लगाना मुष्किल है, लेकिन इतना जरूर है कि बड़े किसानों को इस तरह की परेशानी अवश्‍य झेलनी पड़ी है। इस संबंध में अबूझमाड़ में सरकार द्वारा बनाए गए मुखबिरों की बस्ती में रह रहे कांतिलाल गौराहा (बदला हुआ नाम) का कहना है कि उसकी जमीन पर फसल तैयार होने के बाद नक्सली जबरन फसल ले जाते थे। हम अपनी ही जमीन पर मजदूर बनकर रह गए थे। फसल तैयार होते ही वह जमीन पर लाल झंडा लगा देते थे। इसका अर्थ होता था कि अब फसल उनकी है और वही काटेंगे। दूसरी ओर नक्सल समर्थक इस तरह के इल्जाम को यह कहकर सिरे से नकारते हैं कि नक्सल जबरदस्ती किसी की जमीन नहीं हड़पते हैं बल्कि भूदान आंदोलन के जनक विनोबा भावे की तरह जमीनों को भूमिहीनों के बीच बटवारा करते हैं। यहां इंसाफ किया जाता है छोटे किसानों को भी बराबर का हक दिया जाता है।

बहरहाल जमीन का मुद्दा एक राजनीतिक विशय है जिसपर सावधानी के साथ सभी के वक्तव्य पर गौर करने की जरूरत है। लेकिन इतना तो तय है कि यहां की जनता भी वैसी ही सामाजिक समस्याओें से ग्रसित है, जिसका सामना कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर अरूणाचल प्रदेश की जनता कर रही है। जिसपर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्‍यकता है। छत्तीसगढ़ की आम जनता की समस्याओं को किसी अलग चष्मे से देखने की बजाए बेहतर होगा कि उसके समाधान पर ध्यान दिया जाए। उसे केवल नक्सल प्रभावित इलाका मानना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। रास्ते और भी हैं जिसके माध्यम से आम आदमी की परेशानियों का हल तलाशा जा सकता है।(चरखा फीचर्स)

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शम्‍स तमन्‍ना
लेखक विगत कई वर्षों से प्रिंट एवं इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। बिहार तथा दिल्ली के कई प्रमुख समाचारपत्रों में कार्य करने के अलावा तीन वर्षों तक न्यूज एजेंसी एएनआई में भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। खेल तथा विभिन्न सामाजिक विषयों पर इनके आलेख प्रभावी रहे हैं। वर्तमान में मीडिया के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं पर कार्य करने वाली गैर सरकारी संस्था चरखा में ऐसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत हैं।

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