पार्टी संगठन से बड़ा होता कद

 पंकज कुमार नैथानी

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही हिंदुस्तान में लोकतंत्र के महाउत्सव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं… अगले साल को लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यो के चुनाव को सेमीफाइनल माना जा रहा है…लिहाजा सभी पार्टियां पूरा दम लगाकर मैदान मे डट गई हैं… नेताओं के चुनावी वादों और भाषणबाजी का जनता को इंतजार है…लेकिन इन सब के बीच वह कार्यकर्ता उत्साह से भरपूर है जिसे पांच साल मे एक बार अपनी मेहनत और कौशल दिखाने का मौका मिलात है… पोस्टर लगाने से लेकर रैली का बंदोबस्त करने तक कार्यकर्ता जी जान से जुट जाता है…दरअसल पार्टी कार्यकर्ता ही पार्टी संगठन की नींव मजबूत करता है…और पार्टी संगठन भी किसी नेता को जीरो से हीरो बनाने में अहम भूमिका निभाता है…लेकिन आज के दौर में सीन कुछ बदला बदला सा लग रहा है…पार्टी संगठन पर व्यक्तित्व भारी पड़ता जा रहा है…

राष्ट्रीय राजनीति पर साल 2013 में जितनी तेजी से मोदी का उदय हुआ है…उससे साफ है कि बीजेपी आगामी लोकसभा चुनाव केवल मोदी के बल पर लड़ने जा रही है…मोदी को इतनी लोकप्रियता मिल रही है कि उनके साथ भाषण देते समय दूसरे नेताओं को हूटिंग का शिकार होना पड़ता है…संगठन स्तर पर भी मोदी को संघ का समर्थन प्राप्त है…पार्टी में कोई और उनका मुकाबला करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है…आडवाणी ने कुछ जोर लगाने की कोशिश की थी…लेकिन संघ और पार्टी के दूसरी पांत के नेताओं ने उन्हें दरकिनार कर दिया…मतलब साफ है मोदी इज बीजेपी..बीजेपी इज मोदी जैसे हालात हो गए हैं… मोदी जो कह दें…उसे नकारने की हिमाकत फिलहाल पार्टी संगठन मे नहीं दिख रही है….दूसरी तरफ कांग्रेस का कमोबेश वही हाल है…लगातार घोटालों, भ्रष्टाचार और विदेश नीति में नाकाम रहने से प्रधानमंत्री की छवि जितनी दागदार हुई है..उससे कांग्रेस के पास कैंडिडेट बदलने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है… ऐसे में कांग्रेस को राहुल गांधी से ही एक उम्मीद बंध रही है…. जनवरी में जब राहुल को उपाध्यक्ष बनाया गया था…तब से ही इसकी तैयारी हो गई थी… राहुल गांधी अब सक्रिय तौर पर हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं… संगठन के फैसलों पर उनके व्यक्तिगत फैसले भारी पड़ने लगे हैं… इसका ताजा उदाहरण दागी नेताओँ को बचाने वाले अध्यादेश पर राहुल के यू टर्न से मिलता है…तीखे अंदाज मे राहुल ने अध्यादेश को बकवास करार दिया… और पार्टी का कोई नेता उनसे असहमति नहीं जता सका…यहां तक कि प्रधानमंत्री की छवि पर भी राहुल ने बिना बोले सवाल उठा लिए…

जिन राज्यों मे चुनाव होने जा रहे हैं उन पर नजर डालें तो कमोबेश वैसे ही चेहरे नजर आते हैं जिनकी व्यक्तिगत छवि संगठन पर भारी पड़ती है… मध्यप्रदेश में कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ नहीं बल्कि शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ चुनाव लड़ रही है….बीजेपी का अच्छा बुरा सब कुछ शिवराज के इर्द गिर्द घूम रहा है…यहां तक कि चुनावी मुद्दे भी बिजली, पानी, सड़क से भटककर शिवराज के इर्द गिर्द ठहर गए हैं…छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी के पास रमन सिंह के अलावा कोई और चेहरा नहीं है…मतलब चुनाव जीते या हारें दोनों ही हालत में रमन सिंह जिम्मेदार होंगे…राजस्थान में वसुंधरा अकेले ही कमल खिलाने का दावा कर रही हैं… अलबत्ता राजस्थान में कांग्रेस के पास गहलोत और जोशी के रूप दो मजबूत चेहरे हैं… लेकिन बीजेपी के लिए वसुंधरा के अलावा न कोई नेता और न कोई मुद्दा नजर आ रहा है… बात अगर दिल्ली की करें तो 15 साल से सत्ता से बेदखल बीजेपी वापसी की राह देख रही है…लेकिन उसके पास एक अदद ऐसा नेता नहीं है…जिसकी छवि और वय्क्तित्व के दम पर वह सत्ता मे वापसी का दावा ठोक सके… दूसरी तरफ शीला दीक्षित न चाहते हुए भी कांग्रेस के लिए वन मैन आर्मी बनी हुई हैं…उन्हें सीएम पद की दौड़ से हटाना कांग्रेस के लिए सुसाइड करने जैसा होगा… दिल्ली में नई नई उपजी आम आदमी पार्टी के पास भी फिलहाल अरविंद केजरीवाल के सिवा कोई दूसरा बडा नेता नजर नहीं आ रहा है… जिससे पार्टी का साख बढ़े…

तमाम बातों से साफ है कि आज की राजनीति में व्यक्तित्व पार्टी संगठन पर भारी पड़ रहा है…वह पार्टी के अधिकतर अहम फैसले खुद ही लेने में सक्षम है…जिससे संगंठन क औचित्य पर भी कहीं न कही सवाल उठते हैं…दरअसल पार्टी संगठन का काम होता है कि पार्टी के भीतर किसी एक व्यक्ति की तानाशाही न पनपने दी जाए…सभी फैसले मिलजुलकर लिए जाएं…ताकि किसी तरह की किरकिरी से बचा जा सके…लेकिन आजकल ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है…यह स्थिति स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकती हैmodi+kejriwal+rahul

3 COMMENTS

  1. ऐसा लग रहा है मनो लोकतंत्र फिर से राजतन्त्र की ओर लौट रहा है, जिसके लिए अंतत: जनता ही जिम्मेदार है! जनता जो चाहेगी वही तो होगा!

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  2. यह अच्छी स्थिति नहीं है और वर्त्तमान दलों ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है

  3. यह तो साफ़ ही दिख रहा है,कुछ जेबी पार्टियाँ आज अपने राज्य तक ही सीमित हैं, वे धर्म, जाति के आधार पर अपनी दुकान खोले व ज़माये हुए है.इनका खत्म होना जरूरी है,और जनता ही ऊपर उठ इन्हें बहार कर साक्ति है, प्रतिबन्ध का रास्ता तो सवेंधानिक व मौलिक अधिकारों के बीच फंस जायेगा.तब ही राजनितिक कीचड़ की सफाई हो पायेगी.,

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