केवल कृष्ण पनगोत्रा
अपवाद को छोड़कर आजकल अधिकतर टीवी चैनलों पर चर्चा में भागीदार ‘महामानव’ बोलते कम चीखते ज्यादा देखे जा सकते हैं। जहां तक कि संचालक भी संचालन के बजाये झगड़ा करवाते देखे जा सकते हैं। दुख होता है यह कहने में कि हमारी आदतें अब सलीके की मोहताज नहीं हैं क्या? मानव व्यक्तित्व के कई आयाम हैं। उठना-बैठना, खाना-पीना, पहनना आदि। यह सब ही तो इन्सान के व्यक्तित्व का पैमाना माने जाते हैं। नवीन समाजशास्त्रीय खोजों ने भी व्यक्तित्व पर विशेष प्रकाश डाला है। बातचीत एक ऐसा पैमाना है जिसके बगैर मानव व्यक्तित्व का आकलन करना कठिन है। आप सलीके से उठते-बैठते हैं, परिधान एवं वस्त्रादि पहनते हैं मगर जब तक वार्तालाप के ढंग में सलीका न हो व्यक्तित्व को सर्व-संपूर्ण नहीं माना जा सकता। क्रोध भी मानव स्वाभाव की एक दशा है मगर इसे अपवाद की श्रेणी में रखा जाता है। आज के प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता भरे जीवन में वार्तालाप का ढंग भी सफल जीवन के लिए अनिवार्य माना गया है। रोजगार के प्राय: सभी क्षेत्रों में वार्ता के प्रतिरूप साक्षात्कार को खासी महत्ता दी गई है। इसी प्रकार समाज, परिवार और रिश्तों में भी बोलचाल का सलीका अपनी छाप छोड़े बिना नहीं रहता। बातचीत का ढंग सुव्यवस्थित और लुभाने वाला हो। तभी तो कहा जाता है कि मीठे बोल बड़े अनमोल।
तो फिर क्या करें ?*व्यंग्य-विनोद का पुट:लिनयूटांग का कथन है कि हास्य जीवन का एक अंग है। अत: व्यंग्य विनोद की मनोवैज्ञानिक महत्ता को समझते हुए फिजूल बातों में समय बर्बाद न करें। कभी भी ऐसी व्यंग्यात्मक टिप्पणी न करें जिससे कि दूसरों की भावनाओं को ठेस लगे। बातचीत में हास्य और व्यंग्य की सीमा केवल बातचीत में रस भरने तक ही सीमित रहनी चाहिए।
* विषय की प्रधानता:बातचीत के दौरान विषय प्रधान रहना चाहिए। यह ध्यान रहे कि बात का विषय क्या है। उसी के अनुरूप पक्ष और प्रतिपक्ष जताएं। विषय से हटकर बोलते रहने से सकारात्मक परिणाम नहीं आते और समय भी अलग से नष्ट होता है। विषय से हटकर फिजूल बोलने से व्यक्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
* विषय की गंभीरता:विषय की गंभीरता के अनुसार स्वर में उतार-चढ़ाव लाएं। अधिक धीमे या अधिक कर्कश स्वर में बोलने से दूसरों को असुविधा तो होगी ही, आप स्वयं भी ‘क्या कहा’ या ‘जरा धीरे से बोलो’ जैसे प्रतिसंबोधनों से विचलित हो सकते हैं। इससे संवाद की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
* जटिल और विवादास्पद विषय:कई बार बातचीत का विषय जटिल और विवादास्पद हो सकता है। यदि आप विषय वस्तु का ज्ञान नहीं रखते या अल्पज्ञान रखते हैं तो दूसरों को ध्यानपूर्वक सुनते रहें। व्यर्थ की टिप्पणी करने से परहेज करें। इससे आपके ज्ञान कोष में वृद्धि होगी।
* उद्बोधन की पड़ताल:बोलने से पहले सुनिश्चित करें कि आपके संबोधन या उद्बोधन में कितनी सच्चाई है। तथ्यपूर्ण टिप्पणी या बात करने से आप सहज ही दूसरों पर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव छोड़ेंगे। बातचीत के ढंग में कड़वे तेवर न दिखाएँ एवं चेहरे के भावों में संतुलन बनाए रखें।
* सार्थक बातचीत:ऐसे माहौल से दूर रहने की कोशिश करें जहां बातचीत सार्थक और सकारात्मक न होकर दूसरों की निंदा एवं कटु आलोचना पर आधारित हो। ध्यान रहे कि किसी की जाति-धर्म-पंथ और विश्वास पर कुठाराघात न होने पाए।
*दैहिक भाव:बातचीत के दौरान दैहिक भावों (गेस्चर) के प्रति सचेत रहें तो वार्ता के ढंग में निखार आता है। दैहिक गतियां, जैसे गर्दन और हाथों आदि का स्वत: हरकत में आना स्वाभाविक क्रिया है। गर्दन, बाजू और हाथों को अप्राकृतिक रूप से इतना हरकत में न लाएं जिससे आप उपहास का पात्र बन जाएं।
* व्यर्थ हस्तक्षेप:जब आप समूह में वार्तालाप कर रहे हों तो दूसरों को भी उनके उद्गार प्रकट करने के समान अवसर दें। जब दूसरा बोलने लगे तो विशेष एवं अनिवार्य परिस्थितियों को छोड़कर उन्हें बात कहने दें और टोकने की आदत से बचें। यदि दूसरों की अभिव्यक्ति के दौरान आप के दिमाग में कोई विशेष बात या तर्क आए तो सब्र से काम लें। यदि बीच में बोलना अति आवश्यक समझें तो अपनी बात अल्प शब्दों में कहें ताकि आपके सहयोगी सहज भाव से अपनी बात पूरी कर सकें। बीच में बोलने से पूर्व ‘माफ करें’ जैसा आज्ञा सूचक शब्द कहना न भूलें।यदि आप अपने दैनिक जीवन में आवश्यकतानुसार उपरोक्त बातों का ध्यान रखेंगे तो आपके व्यक्तित्व में चार चांद लग सकते हैं यानि सरसता आएगी और आप सर्वप्रिय भी बन सकते हैं।
पनगोत्रा जी आपने बहुत अच्छा विषय उठाया है। धैर्यपूर्वक संवाद करने की कला इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर दुर्लभ हो चली है। समाज के समीकरणों को बिगाड़ने में इसकी भूमिका उल्लेखनीय है। क्या यह मीडिया पर बढ़ते पश्चिम के प्रभाव का परिणाम नहीं? टी.वी पर जैसा दिखाया जारहा है, अभी भारत का समाज वैसा नहीं। हम अपने जीवन में बहुत.संभलकर अपनी असहमतियों प्रगट करते हैं।पर यूंही चलता रहा तो मीडिया का प्रभाव समाज पर होगा, होता ही है। संवाद के स्थान पर असभ्यों के समान विवाद ही विवाद।