दारा शिकोह व्यक्तित्व और कृतित्व

dara shikohडा. राधेश्याम द्विवेदी
सामान्य परिचयः-मुगल बादशाह शाहजहां जब 67वर्ष का हो चुका तो उसे अपने उत्तराधिकारी की चिन्ता सताने लगी थी। उसके तथा मुमताज महल के चार जीवित पुत्र थे। सभी व्यस्क थे तथा सभी को अलग-अलग प्रान्तों के सेनाओं के नायकत्व का अनुभव था। उनमें भाईचारे का कोई भाव नहीं था। सब एक दूसरे को मारना तथा स्वयं को ही बादशाह बनने का सपना देखते थे। इनमें सबसे बड़ा तो दारा ही था। उसका जन्म 28 अक्तूबर 1615 ई. में हुआ था। शाहजहां इसे बहुत चाहता था और इसे ही बादशाह बनाना चाहता था। वह भी पिता को पूरा सम्मान देता तथा उनके सभी आदेशों का पूरा का पूरा पालन भी करता था। उसे 60,000 जाटों व 40,000 अश्वों का मनसब प्रप्त हुआ था। आरम्भ में उसे पंजाब का सूबेदार बनाया गया। वह अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से आगरे से ही पंजाब का शासन चलाता था। बादशाह उसे अपने पास ही रखना पसन्द करता था। उसे शासन के बहुत से ओहदे व जिम्मेदारियां मिल चुकी थी। 1633 ई. में उसे युवराज बनाया गया। वह बादशाह के सम्पर्क का प्रमुख सूत्रधार बना हुआ था। पिता का खास बनने के कारण कई क्षेत्रीय अनुभवों को वह अपने अन्य भाइयों की अपेक्षा कम प्राप्त कर पाया था। वह युद्ध संचालन में उतना दक्ष नहीं हो पाया था जितना औरंगजेब था। सेना के साथ उसका कोई सम्पर्क नहीं था। वह उत्तराधिकार के युद्ध में धीरे धीरे अयोग्य होता जा रहा था। उसके आसपास झूठे चापलूसों का मजमा लगा रहता था। वह औरंगजेब जैसे दक्ष नही हो पाया था। उसमें सतत संघर्ष करने की क्षमता नहीं थी। उसे मनुष्य चरित्र पहचानने का अनुभव नहीं था। वह एक प्रेमी, पति, लाडला पुत्र और प्यारा पिता तो था परन्तु संकटापन्न प्रजा को अधिकार में रखने में असफल रहा। इसके इन्हीं कमियों का फायदा औरंगजेब ने उठाया और उसे मरवाकर बादशाह बन बैठा था।
व्यक्तित्व:- दारा एक बहादुर के साथ ही साथ बौद्धिक दृष्टि से अपने प्रपितामह अकबर के गुणों व आदर्शों का अनुयायी था। ये गुण उसे विरासत में मिले थे। वह सूफीबाद व इस्लाम के हनफीपंथ का अनुवायी था। विश्व देववादी दर्शन पर उसका विश्वास था। इसी से पे्ररित होकर तालमद , बाइबिल, हिन्दू बेदान्त आदि दर्शनों का उसने अध्ययन कर रखा था। जिन सार्वभौमिक धार्मिक तथ्यों में मतभिन्नता थी उनमें समन्वय करके वह बीच का रास्ता निकालना अपना मुख्य उद्देश्य बना रखा था। वह हिन्दू योगी लालदास तथा मुस्लिम फकीर सरमद का समान रूप से शिष्य था। वह दोनों के सदविचारों को ग्रहण किया था। इतिहासकार बर्नीयर ने लिखा है कि दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी। वह मितभाषी , हाजिर जबाबी, नम्र और अतयन्त उदार व्यक्ति था। वह अपने को बहुत बुद्धिमान और समझदार समझता था। लोग उससे डरते थे। उसे सही सलाह देने से डरते थे। वह अपना क्रोध जल्द ही जल्द शान्त कर लेता था। वह 1633 में युवराज, 1645 में इलाहाबाद का, 1647 में लाहौर का और 1649 में गुजरात का शासक गवर्नर बना। 1653 में उसकी कांधार में पराजय हुई फिर भी शाहजहां उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखता था। इसे उसके और भाई पसन्द नहीं करते थे।
धार्मिक व दार्शनिक विचारक:- वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। हिन्दू व ईसाई धर्म में भी रूचि थी। इससे नाराज होकर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने उस पर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगया था। वह सूफी और तौहीद का जिज्ञासु और संत महात्माओं से मिलता रहता था। एसे अनेक चित्र मिले हैं जिसमें दारा हिन्दू सन्यासियों और मुसलमान फकीरों के संगत में रहा है। वह एक कुशल लेखक भी था। उसने ’’सफीनात अल औलिया’’ व ’’सकीनात अल औलिया’’ सूफी संतो पर लिखी है। 1646 में उसने ’’रिसाला ए हकनुमा’’ और ’’ तारीकात ए हकीकत’’ सूफी की दार्शनिक पुस्तकें लिखी है। उसकी कविता संग्रह ’’अक्सीर ए आजम ’’ में सर्वेश्वरवादी प्रकृति का बोध होता है। धर्म और वैराग्य के लिए उसने ’’ हसनात अल आरिफीन’’ और ’’मुकालम ए बाबालाल ओ दाराशिकोह’’ पुस्तकें लिखी है। वेदान्त और सूफीबाद की तुलना उसके ’’ मजमा अल बहरेन’’ ग्रंथ की रचना की है। उसने 52 उपनिषदों का अनुवाद ’’ सीर ए अकबर’’ ग्रंथ में किया है। हिन्दू दर्शन और पुराणो से प्रभावित होकर उसने अनेक कृतियों का प्रणयन किया है। बाल्यकाल से ही वह अध्यात्म के प्रति लगाव रखता था। यद्यपि कुछ कट्टरपंथी उसे धर्म द्रो्रेही भी मानते थे। उसने इस्लाम की मुख्य धारा को कभी नहीं छोड़ा था। जातिगत सहिष्णुता और भारत में हिन्दू मुस्लिम एकता में उसका अटूट विश्वास था। इन तत्वों को वह धार्मिक प्रपंचों से ऊपर मानता था।
शाहजहां की बीमारीः- जब 1657 में शाहजहां बीमार पड़ा तो दारा उसके पास रहा। उस समय उसकी उम्र 43 साल थी। वह पिता का तख्ते ताउस को पाने की उम्मीद रखता था। वह राजकुमारों पर नजर रखने लगा और बादशाह का समाचार बाहर जाने से रोकने लगा। इससे देश में और ही ज्यादा अफरा-तफरी का माहौल हो गया था। दारा के बढ़ते प्रभाव के कारण उसके भाई उसका विरोध करने लगे थे औरंगजेब और मुराद ने दारा को धर्म विरोधी होने का नारा दिया था। इसका लाभ औरंगजेब ने उठाया। दारा जून 1658 में पहली बार सामूगढ़ में और मार्च 1659 में दूसरी बार अजमेर के पास देवराई में पराजित भी हुआ था ।
जान बचाकर भागना:- उत्तराधिकार की कटुता के कारण उसे जान बचाकर भागना भी पड़ा था। शाहजहां के समर्थन के बावजूद 15 अप्रैल 1658 में ग्वालियर केे पास धर्मट के युद्ध उसे मुराद और औरंगजेब की संयुक्त सेना ने परास्त कर दिया था। उसने शाही सेना को पुनः दुरूस्त किया और 29 मई 1658 को आगरा के पास सामूगढ़ में भी हार का मुख देखना पड़ा था। वह रात में आगरा अपने मकान में पहुचा था । इस बार दारा आगरा सुरक्षित नहीं रूक पाया था। शाहजहां ने उसको बुलवा भेजा पर हताश दारा नहीं मिला। औरंगजेब ने आगरा आकर किले को घेरवाकर पानी की आपूर्ति बन्द कर दिया था। अनेक शाही नौकर इस संकट की घड़ी में किले से भाग गये थे। तीन दिनों तक किले का दरवाजा बन्द रहा। बादशाह ने पुत्र से निवेदन भी किया परन्तु उसने पानी चालू नही होने दिया था। पानी बन्द किये जाने से किले का फाटक खोलवाकर बादशाह को अपने पुत्र के सामने आत्म समर्पण करना पड़ा था। औरंगजेब अपनी बहन को पिता की देखभाल के लिए लगाकर पिता को कैद करवा लिया था और सारा सामान तीन पीढियों का संचित धन यहां से दिल्ली उठवा ले गया था। दारा भी रातोरात आगरा से अपनी पत्नी पुत्रों व दस बारह नौकरों के साथ दिल्ली चला गया। औरंगजेब आगरा के मुबारक मंजिल में ठहरा और जीतने का जश्न मनाया था। दारा शरणार्थियों की तरह पंजाब कच्छ और गुजरात में भटकता रहा। तीसरी बार उसने एक सेना तैयार कर अप्रैल 1659 में राजस्थान के दौराई में औरंगजेब से लड़ा। इस बार भी वह हार गया। वह जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिन्ध की तरफ भागा। इसी दौरान मार्ग की तकलीफों के कारण उसकी प्रिय पत्नी नादिरा बेगम का भी इन्तकाल हो गया। अब दारा विक्षिप्त सा रहने लगा था। उसने अपनी पत्नी की लाश को अपने गुरू मिंया मीर के कब्रिस्तान में दफनाने के उद्देश्य से 70 सौनिकों के साथ लाहौर भिजवा दिया था।
विश्वासघातियों द्वारा गिरफ्तार करवाना:- औरंगजेब से बार बार हारने के कारण उसने दादर के अफगान सरदार जीवन खान का आतिथ्य स्वीकार किया। जो गद्दारी कर गया और धोखे से उसे उसके पुत्र व पुत्रियों को कैद करवाकर बहादुर खां के माध्यम से औरंगजेब के हवाले करा दिया। उसे बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया। उसे भिखारी की पोशाक में हथिनी पर बैठाकर पूरे शहर में घुमाया गया। मुल्लाओं के सामने उस पर मुकदमा चलाया गया। उसे धर्म द्रोह का अभियोग लगाकर मौत की सजा सुनायी गयी। उसकी मुत्यु की दो तिथयां मिलती हैं । पहली 30 अगस्त 1659 और दूसरी 9/10 सितम्बर 1659। इस दिन उसका शिर कलम करवाकर औरंगजेब ने उसे सदा सदा के लिए मौत की नींद सुलवा दिया था। काश! वह जिन्दा होता, तो भारत का इतिहास आज इतना विद्रूप ना होने पाता और गंगा जमुनी तहजीब की अद्भुत मिशाल बुझने ना पाती। इतना ही नहीं दारा के बड़े बेटे सुलेमान शिकोह को औरंगजेब ने कैद करवाकर पोस्ता व अफीम की लत दे देकर 1662 में ग्वालियर किले में मरवा दिया था। उसने दारा के दूसरे बेटे सिपरहार शिकोह को जीवनदान देते हुए अपनी तीसरी बेटी से शादी कर दिया था।
दिल्ली स्थित लाइब्रेरीः- दारा को पुस्तको का बहुत ही शौक था। वह विद्वानों का बड़ा कद्रदान भी था। दिल्ली में उसने एक पुस्तकालय खुलवा रखा था जो बादमें 1803 में पंजाब के वायसराय ओक्टरनोली के आवास तथा नगर निगम के दफ्तर खोले जाने के कारण बन्द कर दिया गया था। 1857 से इसे ’’गदर भवन’’ कहा जाने लगा। कहा तो यह भी जाता है कि आजादी के समय इस पुस्तकालय की किताबें बाहर सड़क पर फेंक दी गयी थी। उसे कबाड़ के रूप में बेंच भी दिया गया था और जला भी दिया गया था। इसे सेना के बैरको के रूप में उपयोग मे लाया जाता था। इसमे दिल्ली कालेज भी चला था। यह लाल बलुवे पत्थर से निर्मित है। उसकी स्थापत्य मुगल कला से युक्त है। यहां संस्कृत के ग्रंथों का अरबी फारसी भाषा में अनुवाद किया जाता था। यहां पर सर्वधर्म पर चर्चाये भी होती रहती थी। बहादुर शाह के दशक में औरंगजेब के दरवार के जुलियाना दा कोस्टा को तथा फिर लाहौर के गवर्नर अलामर्दन खान को यह कोठी र्भेट कर दिया गया था। जो शाही राजकुमारियों शिक्षक भी था। इस समय यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है।
आागरा स्थित दारा की हवेलियां एवं पुस्तकालय:- मुगल काल में हुमायूं के समय आगरा में शोरशाह सूरी का राज हुआ करता था। उसके मंत्री हेमू नामक व्यवसायी ने सेना के रसद की आपूर्ति के लिए आगरा किले के उत्तर में एक मण्डी लगवाया था। जो बाद में सिमसनगंज, मोतीगंज और अब गंज के नाम से जाना जाता है। यहां आस पास जमुना के तट पर अमीरोे की हवेलिया हुआ करती थी। आगरा में दारा से सम्बन्ण्धित दो हवेलियां हुआ करती थीं एक आगरा किले के उत्तर शाहजहां शैली की ’’पतुरिया महल’’ हुआ करती थी । इसमें नृत्य व संगीत के कार्यक्रम हुआ करते थे। जिसकी एक मात्र बुर्जी ’’खूनी बुर्जी ’’ आज भी देखी जा सकती है। इसे मक्खन लाल राम सवरूप ने खरीद रखा है।
दूसरी हवेली को ’’जमुनाबाग’’ या ’’ मुबारक मंजिल’’ कहा जाता है। यह बेलनगंज के दरेसी नं. 3 में यमुना किनारामार्ग के पेट्रोल पम्प के पास स्थित है। 1620 के प्लेजर्ट की सूची में इसे रूचिया सुल्ताना बेगम (रूकइया बेगम ) शाहजहां के धात्री मां के हवेली के रूपमें दर्शाया गया है। यह बाग व हवेली दोनो शक्ल में थी। 1643 में जब यह बनकर तैयार हुआ तो शाहजहां का यहां आगमन हुआ था। अपने पौत्र सुल्तान मुमताज शिकोह के जन्म के अवसर पर जून 1644 में तथा 27 दिसम्बर 1654 तथा जहांआरा के जलने पर शाहजहां यहां आया था। यहां से वह नाव द्वारा ताज महल गया था और वहां से वापस आकर दारा के महल में भोजन किया था। इसके बाद ही वह शहर छोड़ा था। दारा शिकोह ने इस महल में अपनी जरूरत के अनुसार परिवर्तन कराया था। उसने 1638 में इसे बनबवाना शुरू किया था जो 1643 में बनकर पूर्ण हुआ था। इसमें तत्कालीन 6 लाख रूपये लगाकर पुस्तकालय का निर्माण कराया गया था। विभिन्न विषयों की यहां 24 हजार से भी ज्यादा पुस्तकें थीं। 1659 में दारा की मृत्यु के बाद यह पुस्तकालय अपना अस्तित्व खोने लगा था। औरंगजेब साामूगढ़ जीतकर यहां पर विश्राम किया था। उसने यहां एक मस्जिद का निर्माण भी कराया था। इस भवन को ’’मुबारक मंजिल’’ भी कहा जाता है। बाद में औरंगजेब ने इसे नष्ट करवा दिया था। हां, समय समय पर वह इसकी सफाई करवा देता था और कभी कभार यहां रूक भी जाया करता था।
यह लाल पत्थरों से निर्मित तीन मंजिला भवन है, जो दूर से ही अपनी तरफ आकर्षित करती है। इस भवन के पूरब में भूतल पर सुन्दर स्तम्भावलियां अथवा स्तम्भों से युक्त बरामदा है। इसमें लम्बी धारी वाले स्तम्भ बने हुए हैं। इस पर मजबूत मेहराबों से छत का भार टिका हुआ है। पश्चिमी दीवाल में 15 खुले डाट पत्थर लगे हुए हैं। दक्षिण छोर पर वर्तमान में तीन दरवाजे हैं। द्वितीय मंजिल में गलियारा या बरामदा बना हुआ है। इसके सादे मेहराबीदार द्वार बाहर खुलते हैं। ऊपर की प्रत्येक मंजिल छोटी होती गई है। छत पर केवल मंचनुमा प्लेट फार्म ही बनता है। इसलिए प्रत्येक ऊपरी मंजिल खाली जगह से घिरी हुई है। ऊपरी मंजिल में बरामदा नहीं है। तृतीय या सबसे ऊंची मंजिल छोटा तथा अनिमित आकार का है। इसके दीवालों पर राजपूत शैली के तैलचित्र बने हुए थे जो अब समय के साथ समाप्त हो चुके हंै। कभी इसके अन्दर सोने की नक्काशी हुआ करता थी। इसके बाहर विशाल सीढ़ियां बनी हुई हैं। चारो कोनों पर आठ स्तम्भों पर टिकी धातुयुक्त चोटीदार गुम्बद या बुर्जियां बने हैं। छज्जो पर पत्थर की बारीक कारीगरी की गई है। अन्दर सिर्फ पुती दीवारें नजर आती है। इसमें एक विशाल हाल भी है। इसमें भी पच्चीकारी के निशानात खोजे जा सकते हैं। 1761 में भरतपुर के जाट राजा श्रीमन्त सूरजमल ने इस हवेली को लूट लिया था। 1774 के एक पेण्टिंग में कम ऊंचाई के चबूतरे पर यह हवेली बना है। इसमें मण्डप, लघुस्तम्भों पर टिका बंगला छत तथा कनारे बुर्जियां बनी हुई हैं। 1803 में व्रिटिश शासन कायम होने पर इसे और व्यवस्थित कर चार फाटक लगवाये गये। इनके चिन्ह अब भी खोजे जा सकते हैं। व्रिटिश काल में कलेक्टर विलियन्ट ने इसे कस्टम हाउस या परमिट का दफ्तर तथा नमक के प्रधान दफ्तर के रूप में खोल रखा था। वाद में नेपोलियन से भारत आये मिचाइल फाइलोज के पुत्र जीन वपिस्ट फाइलोज जो सिंधिया सेना के सेनापति थे, के नियंत्रण मे यह भवन आ गया। वह बहुत धनी व्यक्ति थे। उन्होंने अनेक इसाई भवनों के निर्माण में खुले हाथ से दान किया था।
इसेे ’’यमुना बाग’’ के नाम से भी जाना जाता रहा। 1841 से 1846 तक इसी भवन में सेंट मेरी स्कूल भी अस्थाई रूप से संचालित होता रहा। 1874 में कर्नल सिमसन ने 4 लाख रूपये लगाकर इस भवन को शामिल करते हुए अनाज की मण्डी व्यवस्ािित रूप में लगवाई । इसे ’सिमसनगंज’ कहा जाने लगा। बाद में श्री मोतीलाल नेहरू की स्मृति में अंगे्रजो के नामों के प्रतिहार के रूप में इसका नाम ’मोतीगंज’ रखा गया। 1878 में दिल्ली के गजट में एक लेख निकला था कि डेकन विजय का समाचार सुनने के बाद मुबारक मंजिल सम्राट औरंगजेब का प्रथम विश्राम स्थल था। यह 171‘ लम्बा, 84‘ चैड़ा आयताकार भवन हैं। 1881 में लाइब्रेरी एवं यमुना बाग के भाग को मिलाकर 12,000 रूपया खर्च करके यहां टाउनहाल बनवाया गया। 1882 में इसी भवन में नगरपालिका की कार्यकारिणी की बैठके होने लगी। नगरपालिका के सदन की बैठके तो पालीवाल पार्क के अन्दर स्थित जोन्स लाइब्रेरी में हो रही थीं। इस प्रकार अगरा नगर पालिका का यह पुराना चुंगी का दफ्तर बन गया था। रेलवे लाइन का विस्तार करते समय यह रेलवे के माल गोदाम के रूप में भी उपयोग में लाया गया था। अंग्रजों ने इसे बहुत कम ही मुल्य पर तथा स्वामीभक्ति के इनाम के रूप में सेना के एक ठीकेदार श्री ज्योति प्रसाद खत्री के पुत्र बाबू श्री विश्वम्भर नाथ खत्री के हाथों बेंच दिया था। आगरा किले के पास की अनेक इमारतों को अंग्रेजो ने गिरवा दिया था परन्तु इस भवन को कोई नुकसान नहीं पहुचाया था। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय यहां के मैदान में का्रंतिकारियों की बड़ी-बड़ी सभायें होती रही है। आजादी के बाद इस भवन में कुछ दिनों तक बैकुण्ठी देवी कन्या महाविद्यालय का संचालन भी हुआ। जब विद्यालय का स्वतंत्र भवन बन गया तो इस भवन में 2 विद्यालय खुले।पहला ’’कन्हई राम बाबूराम हायर सेकेन्डरी स्कूल’’ तथा दूसरा ’’रामचन्द्र गुप्त आदर्श बालमन्दिर मान्टेसरी स्कूल’’ है। इसके साथ ही एक गांधी आश्रम भी इस हवेली में चल रहा है। नगर पालिका इन संस्थाओं से नियमित किराया लेता है। इस भवन का स्वामित्व नगर निगम के पास है। आजादी के बाद यहां 15 अगस्त तथा 26 जनवरी को जलसे मनाये जाते रहे हैं। इस भवन की लोकप्रियता को बढाने के लिए तथा आम लोगों को अपने धरोहरों के प्रति रुचि बढाने के लिए ताज लिटरेरी फेस्टिवल की श्रृंखला में 23 फरवरी 2016 को अपरान्ह 3 बजे एक सेमिनार तथा प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है। आगरा वासियों को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

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