गरीबी रेखा में पिसता गरीब

0
687

राखी रघुवंशी

देश भर में गरीबी को लेकर मोंटेकनुमा बहसों के साथ जो तथ्य और आंकड़े पिछले कुछ सालों में सामने आये हैं, उसने गरीब और गरीबी की परिभाषाओं को लगातार उलझाने का काम किया है. अब तक की तमाम सरकारें गरीबों की संख्या कम होने का दावा करती रही हैं लेकिन न गरीब कम हुये और ना ही गरीबी. उलटे हमारी अर्थव्यवस्था ने पिछले दो दशकों में इनकी संख्या में भयावह तरीके से इजाफा किया है और सरकारी दस्तावेज झूठ गढ़ने में लगे हुये हैं. योजना आयोग ने 19 मार्च 2012 को प्रेस में जारी एक नोट के द्वारा घोषणा की कि हमारे देश में गरीबी घटी है. इसके अनुसार पूरे देश में सन् 2004-05 की तुलना में सन् 2009-10 में गरीबी 7.3 प्रतिशत घटी है. पहले गरीबी 37.2 प्रतिशत थी, जो अब 29.8 प्रतिशत हो गई है. इसी नोट के हवाले से आयोग ने बताया कि गावों के लोग प्रतिदिन 22.42 रूपये तथा शहर के लोग 28.65 रूपये पर गुजर कर सकते है. अर्थात गावों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 672.80 रूपयों तथा शहर में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 859.60 रूपयों में अपनी जीविका चला सकता है. गांव तथा शहरों में जो व्यक्ति इतना कमा लेता है, वह गरीबी की रेखा में आता है तथा इससे कम पैसा खर्च कर पाने वाले ही गरीब है. इस नतीजे पर पहुंचने के लिये योजना आयोग ने सुरेश तेंदुलकर समिति की अनुशंसाओं को अपना पैमाना बनाया है. अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने अप्रैल 2009 के अपने प्रतिवेदन में कहा था कि भारत की 77 प्रतिशत जनता गरीब है. सवाल यह उठता है कि किस आधार पर ये गणनायें की जा रही है. विश्व स्तर पर एक मानक तय कर दिया गया है कि गावों में रहने वाले व्यस्क स्त्री एवं पुरूषों को प्रतिदिन 2400 कैलोरी तथा शहर में रहने वाले व्यस्क स्त्री एवं पुरूषों को 2100 कैलोरी का भोजन मिलना चाहिये. यदि इतना कैलोरी का भोजन मिल सकता है तो वह गरीब नहीं है, उससे कम कैलोरी मिलने वाले ही गरीब है. अब इनको कौन समझाये कि केवल खाना खाकर ही नहीं रहा जा सकता है. रहने के लिये एक छत, पहनने के लिए कपड़े, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाऐं और शिक्षा क्या हमारे देश में मुफ्त में मिलती है. यदि हम पुलिस विकास एवं अनुसंधान ब्यूरों के आदर्श जेल मैनुअल को देखें तो प्रतिदिन कैदियों को जो खाना देना है, वह 50 रूपयों से कम में कही नहीं मिलेगा. हालांकि इसके अलावा भी कैदियों को साबुन, कपड़े, बिस्तर तथा चिकित्सा उपलब्ध करायी जाती हैं. अर्थात भारत सरकार सजायाफ्ता कैदियों को जो भोजन देती है, योजना आयोग के उपाध्यक्ष उससे कम देकर भी उन्हें गरीब नहीं मानते हैं.

विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए ये आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े. भारत में ग़रीबों की संख्या पर विभिन्न अनुमान हैं. गरीबी क्या है? और किन अवस्थाओं से जुड़ी हुई है? देखा जाए कि निरंतर भूख की स्थिति, एक उचित रहवास का अभाव, बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में असक्षम होना, विद्यालय न जा पाना, आजिविका के साधनों का अभाव और दोनों समय का भोजन न मिल पाना गरीबी है, तो गलत नहीं होगा। छोटे बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें गरीबी का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना तथा अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का मुख्य आधार तैयार करते हैं। मूलतः गरीबी सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति या परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब वह शनैः-शनैः विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है। क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्प के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है और उसके उपजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है।

देश के सभी शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चें कचरा बिनने और कचरों का इकठ्ठा करने का काम करते हैं। यह काम भी न केवल अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है, बल्कि क्षेत्र में कार्य करने वालों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी बहुत होता है। कई लोग आर्थिक रूप से उस निम्न स्तर पर जीवनयापन करने को मजबूर हैं जहां उन्हें खाने के नाम पर केवल चावल, नमक, रोटी, और-तो-और कभी-कभी उन्हें यह भी नसीब नहीं होती है। वर्तमान संदर्भ की बात करें तो सरकार की नीतियाँ ज्यादातर मशीनीकृत आधुनिक विकास और औद्योगिकीकरण पर ज्यादा जोर दे रही हैं, न कि इन बच्चों के भविष्य को लेकर किसी प्रकार के ठोस कदम पर। ऐसा नही है कि, गरीबी को मिटाना संभव नहीं है परंतु वास्तविकता यह है गरीबी को मिटाने की इच्छा कहीं नहीं है। गरीबी का बने रहना समाज की जरूरत है, व्यवस्था की मजबूरी है और सबसे अहम् कि वह एक मुद्दा है। प्रो. एम. रीन का उल्लेख करते हुए अमत्र्य सेन लिखते है कि ‘‘लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिए कि उनसे घिन आने लगे, या वे समाज को नुकसान पहुंचाने लगें।‘‘ इस नजरिये में गरीबी के कष्ट और दुखों का नही बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है।

आज अपने आप में यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि कौन गरीबी की रेखा के नीचे माना जायेगा। भारत में गरीबी की परिभाषा तय करने का दायित्व योजना आयोग को सौपा गया है। योजना आयोग इस बात से सहमत है कि किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निम्न न्यूनतम वस्तुएं उपलब्ध होनी चाहिए। 1. संतोषजनक पौष्टिक आहार, तन ढ़कने के लिए कपड़ा एक उचित ढंग का मकान और अन्य कुछ सामग्रियां, जो किसी भी परिवार के लिए जरूरी है। 2. न्यूनतम शिक्षा, पीने के लिए स्वच्छ पानी और पर्यावरण। 3. गरीबी के एक मापदण्ड के रूप में कैलोरी उपयोग (यानि पौष्टिक भोजन की उपलब्धता) को भी स्वीकार किया जाता है।

वास्तव में गरीबी की रेखा वह सीमा है जिसके नीचे जाने का मतलब है जीवन जीने के लिए सबसे जरूरी सुविधाओं, सेवाओं और अवसरों का अभाव। इससे पता चलता हैं कि संपूर्ण देश में रहने वाले बच्चे पढ़ने की उम्र में कचरा बिनने तथा कंधों पर बोझ उठवाकर इनके भविष्य को चैपट किया जा रहा है। इस कच्ची उम्र में इन बच्चों के हाथ में जहां कलम-किताब होनी चाहिएं, वहां इनके हाथ में कचरे की बोरी देखी जा सकती हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों का न तो बचपन बचता और न ही उनकी शिक्षा का मौलिक अधिकार बच पाता है। गर्मी, सर्दी और बरसात से सुरक्षा के लिए मकान की आवश्यकता होती है। एक ही कमरे में 8 से 10 लोग एक साथ रहते हैं। विशेष रूप से गंदी गलियों में लगे एक ही नल से सैकड़ों व्यक्ति पानी पीते हैं, एक ही शौचालय का प्रयोग करते हैं, स्नान घरों और बच्चों के खेलकूद का तो कोई प्रबंध ही नहीं है। इससे स्वास्थ्य हानि, अकुशलता, दूषित सामाजिक वातावरण आदि समस्याओं का जन्म होता है। इससे पता चलता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा होगा जब किसी बच्चे को पौष्टिक भोजन नही मिलता तो वह बच्चा जो कमाता है, उसी से पेट भरता है, तो स्वाभाविक है कि उसका स्वास्थ्य कैसे ठीक होगा। इन लोगों की भारत की सामान्य आबादी के सामांतर एक अलग ही दुनिया है। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी इनके जीवन को सुधारा नहीं जा सका है।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here