क्रिकेट के खेल में कई ऐसे बल्लेबाज रहे, जो न सिर्फ अच्छा खेलते थे, बल्कि टीम को जिताने का असाधारण जज्बा में भी उनमें रहा। लेकिन हर गेंद पर चौके – छक्के मारने की बेताबी ने न सिर्फ टीम की उम्मीदों पर पानी फेरा, बल्कि खुद उनके करियर को भी बर्बाद कर दिया। पता नहीं, क्यों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी मुझे राजनीति के ऐसे ही बेताब खिलाड़ी नजर आ रहे हैं। मुझे डर है कि कहीं उनकी यह बेताबी उन उम्मीदों को भी खत्म न कर दे, जो जनता ने उनसे लगा रखी है। अप्रत्याशित रूप से सड़क से मुख्यमंत्री की कु्र्सी तक पहुंचने वाले केजरीवाल को अपने ही देश के राजनैतिक इतिहास पर नजर डाल लेनी चाहिए। उनसे पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह भी ऐसे ही राजनेता थे, जो जनता में भारी उम्मीद जगा कर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। लेकिन पारी जमने से पहले ही कुछ गलत निर्णय ने उन्हें तो सत्ता से बेदखल किया ही, जनता को भी निराशा के भंवर में धकेल दिया। आज परिस्थितियां पूरी तरह से केजरीवाल के पक्ष में हैं। अनमनेपन के बावजूद कांग्रेस केजरीवाल की सरकार को फिलहाल समर्थन देते रहने को विवश है। वहीं लाख कोशिशों के बावजूद भाजपा ऐसी स्थिति में नहीं कि वह केजरीवाल सरकार को उखाड़ फेंके। क्योंकि ऐसा करने पर जनाक्रोश का खतरा इसके नेताओं के सामने मंडरा रहा है। लिहाजा अभी कुछ महीने केजरीवाल बेफिक्र होकर सत्ता व शासन के दांव-पेच समझ सकते हैं। उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि सत्ता जहर नहीं बल्कि जनसेवा का कारगर माध्यम है। इसके जरिए जनकल्याण के वे सारे कार्य कर सकते हैं, जो वे चाहते हैं और जिनकी उम्मीद जनता परंपरागत पेशेवर राजनेताओं से नहीं करती। इसी आकांक्षा के तरह ही जनता ने अप्रत्याशित निर्णय लेते हुए उन्हें सत्ता सौंपी। बार-बार इस्तीफे की बात कह कर वे विरोधियों को मौका ही दे रहे हैं। यह बात उन्हें गांठ बांध लेनी चाहिए कि सत्ता से बाहर रह कर वे धरना प्रदर्शन तो कर सकेंगे, लेकिन वे कार्य नहीं, जिनके लिए जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी है। केजरीवाल की ईमानदारी और नेकनीयती पर किसी को जरा भी शक नहीं। लिहाजा उन्हें बार – बार यह कहने की कतई जरूरत नहीं कि वे सत्ता के लिए राजनीति में नहीं आए हैं। उनके बार-बार इस्तीफे की धमकी जन आकांक्षाओं को आघात ही पहुंचा रहा है। इसलिए केजरीवाल को हर गेंद पर चौका-छ्क्का मारने को बेताब खिलाड़ी के बजाय उस परिपक्व खिलाड़ी की तरह खेलना चाहिए जो मैदान पर टिके रहने के साथ ही मौका मिलने पर लंबे शॉट्स लगाने से भी नहीं चूके।
केजरीवाल तो अपनी पारी खेल गए,और दोनों पार्टीज पर एक बार तो भारी पड़ गए पर आगे का रास्ता जटिल ही है.कांग्रेस तो वैसे ही हारा हुआ मैदान मारने की फिक्र में है,नुक्सान भा ज पा को ही होगा जितने वोट “आप” लेगी वे उसी के खाते के होंगे और उतनी ही पांच से दस सीटों का नुक्सान.कुल मिला भा ज पा को ही अपना रायता बिखरने से बचाने के लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी .कांग्रेस तो अंतरमन से खुश ही है क्योंकि उसकी छवि एक बार काफी ख़राब हो चुकी है.उनका ज्यादा नुक्सान नहीं, यदि सीटें ठीक ठाक मिल भी गयी तो राज करने के लिए आतुर “आप” कि बुद्धि निकाल गोद में बैठा कड़ी हो जायेगी. राजनीती में सिद्धांत वादे कोई मायने नहीं रखते न ही कोई नाक होती है जो कटने का डर हो.