-सतीश सिंह
27 जून के दैनिक हिन्दुस्तान में ‘शब्द’ पृष्ठ के अंतगर्त युवा स्वर स्तंभ में एक स्पष्टीकरण प्रकाशित की गई है कि 20 जून के अंक में युवा स्वर के तहत प्रकाशित कविता ‘खूंटी में टंगी जिंदगी’ पूर्व में सितंबर 2001 की कादंबिनी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी। दैनिक हिन्दुस्तान को यह सूचना कविता के मूल रचनाकार श्री बृजेश कुमार त्यागी ने दी। किसी दूसरे रचनाकार की रचना को अपना बताने या चोरी करने के कृत्य को अंग्रेजी में प्लेगिएरिज्म कहते हैं। अभी तक इस संबंध में स्पष्ट कानून का अभाव है। हिंदुस्तान में प्रकाशित स्पष्टीकरण में भी कविता को चुराकर अपने नाम से प्रकाशित करवाने वाले शख्स विजय कुमार सिंह की केवल निंदा की गई है।
कुछ दिनों पहले प्रख्यात उपन्यासकार श्री चेतन भगत ने भी ‘थ्री इडियट्स; के प्रोडयूसर पर अपने उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट’ के कुछ अंश की चोरी का आरोप लगाया था।
हालांकि हम इन दोनों घटनाओं को कॉपीराईट कानून से जोड़कर नहीं देख सकते हैं, क्योंकि प्लेगिएरिज्म और कॉपीराईट में भिन्नता है। फिर भी प्लेगिएरिज्म और कॉपीराईट के बीच चोली-दामन का रिश्ता तो जरुर है। सच कहा जाए तो दोनों एक-दूसरे से अलग रहकर भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
कॉपीराईट का शाब्दिक अर्थ है कलाकार या लेखक का स्वंय के सृजन पर मालिकाना हक। जब कॉपीराईट कानून के तहत संरक्षित रचना का किसी के द्वारा मूल रचनाकार की जानकारी या मर्जी के बिना इस्तेमाल किया जाता है तो उसे कॉपीराईट कानून का उल्लंघन कहा जाता है।
इंटरनेट के जमाने में कॉपीराईट एक्ट की प्रासंगिकता स्वंयसिध्द है, क्योंकि आजकल सबसे ज्यादा कॉपीराईट कानून को तोड़ा जा रहा है। कट-पेस्ट का चलन इस कदर बढ़ गया है कि मौलिकता किसी अंधेरे के गर्त में चली गई है। बावजूद इसके इसकी फिक्र किसी को नहीं है। छपास की भूख के आगे सभी तरह का नशा कमतर है। पड़ताल से जाहिर है कि कोई भी प्रकाशक रचनाओं की मौलिकता का सत्यापन नहीं करता है। फिल्म इंडस्ट्री की हालत इस संदर्भ में सबसे ज्यादा खराब है। गीत, संगीत और स्क्रिप्ट की चोरी यहाँ बेहद ही आम है। फिल्म इंडस्ट्री के नामचीन रचनाकार भी इस तरह के कृत्य करने से कोई गुरेज नहीं करते हैं।
किसकी रचना चोरी हुई या फिर किसकी रचना कब बिना मूल लेखक की अनुमति के चुपके से फिसल कर बाजार में आ गई, पता ही नहीं चल पाता है। श्री बृजेश कुमार त्यागी या उनके जैसे दूसरे जागरुक लेखक या कलाकार ने चोरी जानकारी दे दी या कॉपीराईट कानून के उल्लंघन के बारे में बता दिया तो ठीक है, अन्यथा ‘गंदा है पर धंधा’ वाले तर्ज पर सबकुछ बाजार में चल रहा है।
1957 में बने कॉपीराईट एक्ट में सबसे बड़ी खामी यह है कि वह मूल रचनाकारों को न्याय नहीं दिला पा रहा है। संगीतकार, गीतकार, लेखक व अन्यान्य कलाकार अपनी कला की सही कीमत पाने से महरुम रह जाते हैं। उनकी कला को प्रोडयूसर और प्रकाशक औने-पौने दाम में खरीद लेते हैं और फिर उसी कला या रचना के जरिए लाखों-करोड़ों कमाते हैं।
बानगी के तौर पर शकील बदायूनी द्वारा लिखित और गुलाम मोहम्मद द्वारा संगीतबद्ध की हुई ‘भगवान तेरी दुनिया में इंसान नहीं है,’ गीत से फिल्म के प्रोडयूसर ने तो लाखों कमाया, पर आश्चर्यजनक रुप से इस गीत के संगीतकार गुलाम मोहम्मद की मौत बदहाली में हुई। गुलाम मोहम्मद की तरह प्रसिद्ध संगीतकार खेमचंद प्रकाश की पत्नी की मौत भी मुम्बई की सड़कों पर भीख मांगते हुई थी।
एक फिल्म में बहुत से कलाकार मसलन संगीतकार, गीतकार, लेखक इत्यादि काम करते हैं और उनके द्वारा सृजित रचना फिल्म बनने के बाद उनकी नहीं रह जाती है। समझौता के माध्यम से उनकी कला पर अधिकार फिल्म प्रोडयूसर का हो जाता है। इसी तरह लेखक या कवि की रचना किसी अखबार या मैगजीन में छपने के बाद उसकी नहीं रह जाती है।
(अधिकांश प्रकाशक के नियम ऐसे रहते हैं कि रचना के प्रकाशन के बाद उसपर कॉपीराईट प्रकाशक का हो जाता है।)
आमतौर पर कॉपीराईट के स्थानांतरण से पहले फिल्म प्रोडयूसर या प्रकाशक, कलाकार या लेखक के साथ एक समझौतानामा पर हस्ताक्षर करता है। इस तरह के समझौतानामा के द्वारा कलाकार या लेखक अपनी रचना का कॉपीराईट फिल्म प्रोडयूसर या प्रकाशक को दे देते हैं। जबकि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि रचना पर हमेशा मालिकाना हक सृजनकार के पास बना रहे और भविष्य में मिलने वाली रायल्टी में भी उसको आनुपातिक हिस्सा भी मिलता रहे, किंतु भारत में अभी ऐसा नहीं हो पा रहा है।
फिलहाल भारत में कॉपीराईट एक्ट में संषोधन का प्रस्ताव है, लेकिन यह संषोधन सिर्फ गीत व संगीत से जुड़ा हुआ है। इस मामले में अंर्तराष्ट्रीय परिदृष्य भारत से काफी बेहतर है। आस्ट्रिया और जर्मनी में कॉपीराईट एक्ट से जुड़े हुए नियमावली कलाकारों और लेखकों के अनुकूल हैं। वहाँ पर मूल कलाकार व लेखक को ताउम्र उनकी रचनाओं के लिए रायल्टी मिलता है। इस तरह के कानून से कम-से-कम कलाकारों और लेखकों का उनकी रचनाओं पर मालिकाना हक हमेशा बना रहता है।
हो सकता है कलाकारों और लेखकों को इस तरह के अधिकार देने की वकालत करना समझौता की स्वतंत्रता का हनन हो, परन्तु इतना तो स्थापित सत्य है कि कलाकारों और लेखकों को उनकी रचनाओं पर हमेशा के लिए अधिकार देने से, उनका आर्थिक शोषण काफी हद तक रुक सकता है।