पीएम सोचो!परमाणु रिएक्टर का इतना विरोध क्यों ?

इक़बाल हिंदुस्तानी

अमेरिका को खुश करने के लिये भारतीयों की चिंता नहीं!

अमेरिका के साथ हमारी सरकार द्वारा किये गये परमाणु क़रार का विवाद ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस विरोध की कोई खास परवाह नहीं है। इस क़रार को लेकर महाराष्ट्र के जैतापुर में लगने वाले ईपीआर रिएक्टर का विरोध तेज़ होता जा रहा है। दरअसल जैतापुर में एनपीसीआईएल और एरेवा कंपनी के बीच ऐसे 6 ईपीआर रिएक्टर लगाने का समझौता हआ है। इन रिएक्टरों की कुल बिजली पैदा करने की क्षमता 1990 मैगावाट होगी। क्षेत्र के लोग और समाजसेवी संगठन इनका विरोध यह कहकर कर रहे हैं कि इनकी जगह ऐसे रिएक्टर लगाये जायें जो दुनिया में पहले से ही इस्तेमाल हो रहे हैं। विरोध करने वालों का कहना है कि एरोवा फ्रांस की कंपनी है लेकिन इस कंपनी ने आज तक अपने ही देश में ईपीआर रिएक्टर नहीं लगाया है। इसकी वजह है कि वहां भी सरकार को इसके ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा है और जनभावनाओं का सम्मान करते हुए वहां की सरकार ने घुटने टेक दिये हैं। लोगों का सवाल है कि फिर हमारी सरकार जनता की पसंद पर अपनी ज़िद क्यों थोपना चाहती है?

दरअसल यह सारा हंगामा इसलिये भी हो रहा है क्योंकि फिनलैंड में बन रहा दुनिया का पहला ईपीआर परमाणु रिएक्टर अभी बना भी नहीं है कि इसकी भ्रूणहत्या की कोशिशें की जा रही हैं। इस रिएक्टर के भविष्य पर मंडराने वाले ख़तरों का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके निर्माण में पहले ही दो साल की देरी हो चुकी है। जैसे जैसे इसको तैयार करने का काम तेज़ किया जाता है वैसे वैसे इसके विरोध में वहां के लोग और भी मुखर होने लगते हैं। सबसे बड़ा सवाल इससे जुड़ी संरक्षा को लेकर उठाया जा रहा है जिसका कोई संतोषजनक जवाब किसी सरकार या एजंसी के पास नहीं है। हमारे देश में लगने वाले ऐसे रिएक्टरों का काफी कुछ दारोमदार फिनलैंड के इस ईपीआर रिएक्टर से जुड़ गया है इसकी वजह यह है कि अगर इस प्रोजैक्ट को वहां जनविरोध के कारण सरकार बीच में ही छोड़ देती है तो फिर हमारे देश के जैतापुर परमाणु रिएक्टर के भविष्य पर भी ख़तरे के बादल मंडराने तय हैं। इतना ही नहीं इन रिएक्टरों के लिये किये जाने वाले भूमि अधिग्रहण का पहले ही विरोध होता रहा है, अब क्षेत्र की सुरक्षा का सवाल इससे भी बड़ा विरोध का आधर बन रहा है।

जहां तक फिनलैंड के ओल्किलयुतो में 2005 में बनने शुरू हुए यूरूपियन प्रेसराइज़्ड रिएक्टर यानी ईपीआर का सवाल है इसको 2009 में बनकर तैयार हो जाना चाहिये था लेकिन लगातार इस योजना को टाले जाने से इसकी लागत बढ़कर दो गुनी हो चुकी है। वहां की जनता का बढ़ता विरोध लगातार इसके निर्माण की अंतिम तिथि को आगे बढ़ाने को मजबूर कर रहा है। फिनलैंड के उूर्जा क्षेत्र की अग्रणी कंपनी मेस्टो के उच्च अधिकारी स्वीकार करते हैं कि जब से जापान के फुकुशिमा का परमाणु रिएक्टर हादसा हुआ है तब से एनजीओ और अनेक बुध्दिजीवियों ने ऐसे रिएक्टरों की सुरक्षा को लेकर लोगों को लामबंद करना शुरू कर दिया है। हालांकि वहां की सरकार लगातार इस बात की गारंटी दे रही है कि ईपीआर परमाणु रिएक्टर से कोई ख़तरा पैदा नहीं होगा लेकिन लोगों के विरोध की हालत यह है कि अब इस रिएक्टर के 2013 में भी शुरू होने की संभावना नज़र नहीं आ रही है। फिनलैंड में जबकि चार परमाणु रिएक्टर पहले से ही काम कर रहे हैं लेकिन विरोध ईपीआर रिएक्टरों को लेकर इसलिये हो रहा है क्योंकि इनकी सुरक्षा का स्तर अभी दुनिया के किसी देश में परखा नहीं गया है। अगर फिनलैंड इस मामले में पीछे हटता है तो यह तय है कि भारत के लोग किसी कीमत पर इस ईपीआर रिएक्टर को यहां नहीं लगने देंगे।

वैज्ञानिकों, पूर्व नौकरशाहों, एक पूर्व नौसेना प्रमुख , सिविल सोसायटी के सदस्यों और अनेक गैर सरकारी संगठनों ने सामूहिक रूप से समस्त प्रस्तावित न्यूक्लियर प्लांट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। इस पीआईएल में मांग की गयी है कि विशेषज्ञों का एक स्वतंत्र निकाय बनाकर देश में लगने वाले सभी परमाणु संयन्त्रों के सुरक्षा मानकों की कड़ी जांच करने से पहले इनका निर्माण तत्काल प्रभाव से जनहित में रोकने का सरकार को आदेश किये जाये। अभी इस याचिका पर कोई स्टे नहीं हुआ है लेकिन जिस तरह से सरकार इस मामले में काम कर रही है उससे एक बार फिर ऐसे आसार बन रहे हैं कि वह मुंह की खायेगी। पहले महाराष्ट्र के जैतापुर और अब तमिलनाडु के कुड्डानकुलम में परमाणु संयत्र लगाने का स्थानीय लोगों द्वारा बढ़ते विरोध के बावजूद हमारी सरकारें संवेदनहीनता और तानाशाही का परिचय देती नज़र आ रही हैं। हालांकि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने हालात काबू से बाहर जाते देख अब कुड्डानकुलम के लोगों की बात सुनने का आश्वासन दिया है लेकिन सरकारे अकसर अपनी बात से मुकर जाती हैं यह सभी जानते हैं।

दरअसल हम जिन देशों से परमाणु रिएक्टर लेने जा रहे हैं, विडंबना यह है कि वे देश स्वयं परमाणु बिजली पर अपनी निर्भरता कम करके उूर्जा के वैकल्पिक रास्ते तलाश कर रहे हैं। असली बहस परमाणु सुरक्षा के मामले में होनी चाहिये लेकिन हमारी सरकार इस मामले में अमेरिका से हुए परमाणु क़रार को पूरा करने की धुन में अपने ही लोगों की बात धैर्यपूर्वक सुनने तक को तैयार नहीं है। इससे पहले महाराष्ट्र के जैतापुर में स्थानीय नागरिकों ने यही सवाल पर्यावरण की सुरक्षा के साथ साथ बड़े पैमाने पर छिनने वाले रोज़गार का विकल्प मांग कर उठाया था। सच तो यह है कि सरकार परमाणु करार को लागू करने के लिये इतनी अधिक उतावली थी कि उसने न केवल अपने अस्तित्व को दांव पर लगा दिया था बल्कि उसने अमेरिका को खुश करने के लिये उूर्जा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय, विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय और योजना आयोग से जुड़ी विभिन्न एजंसियों तक की राय को अनसुना कर दिया था। ऐसे में सरकार जनता की आवाज़ सुनेगी यह सोचना ही बेकार है।

हमारे देश में परमाणु उद्योग और व्यापार आर्थिक और वैज्ञानिक अंकेक्षण से उूपर है जिससे न्यक्लियर व्यापार और इससे जुडे़ इंटरनेशनल समझौतों में चलने वाले कमीशन के लेनदेन को लेकर अब किसी को शक नहीं रह गया है। यही वजह है कि इन्हीं कारणों से कई बार परमाणु रिएक्टर की ख़रीद में नियम कानून के साथ ही मानकों की भी अनदेखी की जाती है। 1986 में चेरनोबिल दुर्घटना से लेकर जापान के फुकुशिमा हादसे तक यह बात पूरी तरह साफ हो चुकी है कि सुरक्षा के तमाम दावों के बावजूद परमाणु प्लांट में गड़बड़ी होने पर कैसा कहर बरपा होता है। सबसे ख़तरनाक बात यह है कि इतना जोखिम होने के बावजूद हमारी सरकार ने न तो इस मामले में नियमित जांच करने को कोई एजंसी बनाई है और न ही ऐसा हादसा होने पर किसी की सीधी ज़िम्मेदारी तय की गयी है। यूरूप में परमाणु हादसे की बरबादी देखने के बाद क्योटो प्रोटोकॉल ने स्वच्छ विकास तंत्र से परमाणु योजनाओं को बाहर रखा है। हालत यह हो चुकी है कि हादसे के बाद न केवल जापान और रूस बल्कि अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और यूरूप के तमाम देशों ने परमाणु बिजली की जगह वैकल्पिक उूर्जा के श्रोत तलाशने शुरू कर दिये हैं। अब सारा जोर अक्षय और सौर उूर्जा पर दिया जा रहा है।

सरकार को चाहिये कि अपनी सबसे पहली जवाबदेही और कल्याण का केंद्र अपने नागरिकों को मानकर कोई फैसला करे जिससे आने वाली नस्लें हमें यह दोष न दें कि रेडियोर्ध्मिता से हादसा होने पर खाने पीने के सामान, हवा, पानी, और पशु तक इससे प्रभावित हों और सेहत पर बुरा असर पड़ने के साथ अंग भंग और गर्भ में बच्चो का जीवन ख़तरे में पड़ जाये। इसके लिये स्वतंत्र साइंस कमैटी का गठन कर निष्पक्ष विश्लेषण कर सरकार को अंतिम निर्णय लेने से पहले मूल्यांकन समिति की सलाह का इंतज़ार करना चाहिये नहीं तो यह माना जायेगा कि यूपीए सरकार की जवाबदेही अमेरिका के प्रति अपनी जनता से कहीं अधिक है।

मौत के डर से नाहक़ परेशान हैं,

आप ज़िंदा कहां हैं जो मर जायेंगे।।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

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