मेरे होने, न होने के बीच का अवकाश है तुम्हारे लिये …
कितना कुछ घुमड़ रहा है मेरे अंदर और
बाहर से मेरे अंदर तक फैलता कोलाहल
किसी धुएँ की तरह
प्रदूषित कर देता है मेरे मन को…
मैं हरपल – मेरे होने के साथ जीना चाहता हूँ
मगर मेरे होने, न होने के बीच का अवकाश
तुम पढ़ लेती हो और उसी में तुम जीने की
कोशिश करती रहती हो….
कितना कुछ बदल जाता है जब हम
पलपल एक दूसरे के करीब होते हुए भी
एक-दूजे के लिए तरसते हैं और कभी
अपने मन से ही घुमडते बादलों की तरह
कितना बरसते हैं….
तुम्हारे-मेरे अंदर चलती रहती है निरंतर
अपनी अपनी एक निजी ज़िंदगी जो
ट्रेन की पटरी सी समान्तर दूर दूर तक
ले जाती हैं हमें किसी क्षितिज तक
मगर मैं समझता हूँ कि – सिर्फ तुम्हारे लिए ही
मेरे होने, न होने के बीच का अवकाश है तुम्हारे लिये …