कविता : बर्फ के रिश्ते – विजय कुमार

बर्फ के रिश्ते

अक्सर सोचता हूँ ,

रिश्ते क्यों जम जातें है ;

बर्फ की तरह !!!

 

एक ऐसी बर्फ ..

जो पिघलने से इनकार कर दे…

एक ऐसी बर्फ ..

जो सोचने पर मजबूर कर दे..

एक ऐसी बर्फ…

जो जीवन को पत्थर बना दे……

 

इन रिश्तों की उष्णता ,

दर्द की पराकाष्ठा पर पहुँच कर ,

जीवन की आग में जलकर ;

बर्फ बन जाती है ……

 

और अक्सर हमें शूल की तरह चुभते है

और भीतर ही भीतर जमते जाते है ये रिश्तें..

फिर ; अचानक ही एक दिन ;

हम !

हमारे रिश्तों को देखते है

किसी पाषाण शिला

की तरह बर्फ में जमे हुए……

 

ये रिश्ते ताकते है ;

हमारी और !

और हमसे पूछते है ,

एक मौन प्रश्न …

ये जनम क्या यूँ ही बीतेंगा !

हमारी जमी हुई उष्णता कब पिगलेंगी !

 

 

 

हम निशब्द होते है

इन रिश्तों के प्रश्नों पर

और अपनी जीवन को जटिलता पर ….

रिश्तों की बर्फ जमी हुई रहती है ..

और यूँ लगता है जैसे एक एक पल ;

एक एक युग की

उदासी और इन्तजार को प्रदर्शित करता है !!

 

लेकिन ;

इन रिश्तों की

जमी हुई बर्फ में

ये आंसू कैसे तैरते है …….

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here