गुलमोहर मुझे अच्छा लगने लगा है!

-प्रवीण गुगनानी-
poem

गुलमोहर मुझे अच्छा लगने लगा है!
उस दिन जो संगीत था,
बड़ा ही मुखर-मुखर सा।
उसमें लिखा था वो सन्देश,
जिसे मैं पढ़ नहीं पाया था।
तब जब वह समुद्री रेत पर लिखा हुआ था,
कुछ ऊंगलिया थी थरथराती-कपकपातीं।
जो चली थी उस रेत पर,
चली थी, कई मीलों।
लिखते हुए ऐसा कुछ,
जो हवाओं को रुचिकर नहीं था।
और न ही उन लहरों को जो,
समुद्री तट से बड़ा ही गहरा प्रेम करती थी।
प्रेम की उसकी परिभाषा,
संभवतः यही थी।
कि उसका अधिकार अशेष-अबाध रहे,
अनन्यतम भी रहे वह स्वयं।
कुछ इस तरह ही कि,
स्वयं से भी उसका तादात्म्य।
परिचय की परिधियों को लांघने न पाए,
अब वह सन्देश भी पठनीय है।
और बहुत समय बाद,
गुलमोहर भी मुझे अच्छा लगने लगा है!

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