कविता:मैँ कहाँ जाऊँ-मोतीलाल

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मैँ कहाँ जाऊँ

किसी स्वर्ग जैसा

अब नर्क कहाँ बचा है यहाँ

जहाँ कशिश से भरी आँखोँ मेँ

गालिब की गजले महकती हो

जहाँ मेरी जर्जर कमीज की जेब से

कोई सादा कागज निकल आता हो

 

कहाँ जाऊँ मैँ

ताकि किसी अदृश्य उद्धेश्य के लिए

संसद की दीवारेँ न ढहे

और दायित्व के पंखोँ को बाँधकर

कोई सार्थक और गंभीर पहल

कम से कम सामने हो मौजूद मेरे

 

तीली और मिथक की अस्मिता मेँ

जरुरत से कुछ ज्यादा ही

स्मृति-कोश की सारी स्मृतियाँ

आँच की हदोँ को छोड़कर

किसी हंस के समान

मानसरोवर मेँ तैरना चाहती है

और महास्वप्न के पटाक्षेप पर

जब गले से निकलती है सीटी

तब जाने की समस्त संभावनाएँ

नरक के दरवाजे पर ही अटकी है

और खाली हाथ

पेंट की दोनोँ जेबोँ मेँ कसमसा रहे है

 

कहाँ जाऊँ मैँ

रात के घने अन्धकार से निकलकर

मै कहाँ जाऊँ ।

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