कवि और कल्पना

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thingingआजकल हर निर्माता अपनी सफल फिल्म के सीक्वल बनाने में लगा हुआ है।  टी.वी. पर आने वाले रियलिटी शोज़ के तो  हर साल नये सीज़न आते ही हैं। अब कुछ धारावाहिक भी नये सीज़न लेकर आ रहे हैं, तो मैंने सोचा कि इस प्रथा को लेखन में भी उतारा जाये, जो बात पहले कहने से छुट गई हो वो इस सीज़न… अरे नहीं इस अंक में कह देंगे,   इसलियें प्रस्तुत है कवि और कल्पना

कवि और कल्पना का अटूट साथ है। मैं कविता लिखती हूँ पर कल्पना में शून्य पर अटकी हूँ, इसलियें मैं कवियत्री हूँ ही नहीं, ऋतुओं का वर्णन, चाय,  चींटी,  किसान, कमल और प्रदूषण जैसे नीरस विषय तो कविता के लियें अनुकूल ही नहीं हैं। केवल यथार्थ से कविता नहीं बनती, उसमें कल्पना की ऊँची उड़ान होना ज़रूरी है, जैसे दाल में नमक होना, इसलिय ख़ुद को मैं कवियत्री मान ही नहीं सकती।

कवि वह होता है  जो किसी और ही दुनियाँ में विचरता है।  अभी कुछ दिन पहले एक कवि मित्र की कविता पढ़ी उनके शब्द तो याद नहीं हैं पर उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था ‘’तुम रोज़ सुबह सुबह सूखे पत्तो के साथ चली आती हो…’’ इत्यादि। मैं बड़ी हैरान हुई कि ये कौन हैं जो भाई साहब के घर रोज़ सुबह सुबह चली आती हैं। सुबह का समय तो सब व्यस्त रहते हैं, घर भी बिखरा सा रहता है। मैंने भाई साहब से कहा कि ‘’कविता तो आपकी अच्छी है पर ये सुबह सुबह कौन आ जाती हैं, फोन करके आना चाहिये।‘’ कविवर ने मुझसे कहा कि ‘’आप कविता लिखना छोड़ दीजिये और व्यंग लिखना शुरू कर दीजिये।‘’  मैंने ट्यूबलाइट की तरह बात देर से समझी कि ये भाईसाहब की कल्पना (कल्पना नाम नहीं है  fantasy है) हैं।  किशोरावस्था में तो एसी कल्पनायें लोग करते हैं  पर कविवर तो किशोरावस्था को काफ़ी पीछे छोड़ आये है अब इस उम्र में भी.. बच्चे क्या सोचते होंगे।

कवियों में एक और बड़ी अच्छी बात होती है कि वो कल्पना जगत और यथार्थ के बीच का दरवाज़ा खुला रखते हैं। कल्पना में प्रेयसी के लम्बे घने बादलों के नीचे बरसात (जब सिर धोकर तौलिये से बाल झटकती हैं)  में भीगकर शब्दों को संजो रहे हैं, कविता रूप ले रही है, अचानक आवाज़ आती है ‘’सुनिये शाम को मेंरी बहन आने वाली है ज़रा सब्जी ले आइये एक किलो आलू…….’’ कविवर तुरन्त यथार्थ में आजाते हैं आलू, प्याज, टमाटर,  पनीर गोभी,… लेने थैला लेकर चल पड़ते हैं।  वापिस आकर फिर जु्ल्फों मे उलझ जाते हैं। दरअसल कवि भी अभिनेता से कम नहीं होते,  निर्देशक के ‘कट’ कहते ही अपना किरदार छोडकर वास्तविक रूप में आजाते हैं और कैमरा लाइट का इशारा मिलते ही अपने किरदार में । बस कवि को निर्देशक के आदेश की ज़रूरत नहीं पड़ती,कवि अपने मन के मालिक होते हैं।

कविवर की कल्पना ऐसी ऐसी होती हैं कि मै तो स्तब्ध रह जाती हूँ।एक कविता मे कुछ ऐसा लिखा था कि ‘’मै तुम्हारा विष पी लूँगा वो अमृत बन जायेगा’’  ।मुझे लगा कवि महोदय किसी सर्पणी के चक्कर मे तो नहीं फंस गये ! उनकी हर कविता चौंका देती है एक अन्य कविता मे लिखा ‘’तुम्हारे आने से हवा मे ख़ुशबू फैल जाती है। मैने उन्हे तुरन्त फोन किया और पूछा ‘’भाइसाहब भाभी कौन सा परफ्यूम लगती हैं?’’ उन्होने जवाब दिया ‘’पहली बात तो ये कि मैने ये आपकी भाभी के लिये नहीं लिखा है, दूसरी बात कि वो परफ्यूम नहीं लगाती, उनके तन की प्रकृतिक सुगंध की बात लिखी है, आप नहीं समझेंगी’’ मैने कहा ‘’रहने दीजिये किसी के पसीने से तो ख़ुशबू आने से रही।‘’ भाई साहब का ठहाका गूँजा हा.. हा.. हा..।

कविवर एक बार ऐक्वेरियम गये वहाँ से आकर मछलियों की तस्वीरें गूगल पर ढूँढ़ी और लगे लिखने कविता,  मैने सोचा चलो अपनी कल्पना से तो बाहर निकले, पर नहीं मछली के लियें भी वही रोमाटिक अंदाज़ मे कविता लिख डाली।मैने कहा ‘’अब क्या मछलियाँ भी तन की ख़ुशबू उडायेंगी या परफ्यूम लगायेंगी।‘’ उधर से कविवर का वही चिरपरिचित ठहाका गूँजा हा…हा…हा…

 

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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