जब थी मजबूरियाँ, उसने पाला हमें
हम थे कमज़ोर जब, तो सम्भाला हमें
परवरिश की हमारी बड़े ध्यान से
हम थे बिखरे तो सांचे में ढाला हमें
बन गए हम जो काबिल तो मुंह खोल कर
कोसने लग गए क्यों इसी देश को?
देश के धन का, सुविधा का उपभोग कर,
पोसने लग गए दूजे परिवेश को?
इसकी समृद्ध भूमि में उपजे हैं जो,
“देश में अब नहीं कुछ” ये कहते हैं वो
अपने घर की दशा देखें फुर्सत कहाँ
और पड़ोसी कि बातों में बहते हैं वो
“चंद मुद्रा विदेशी मिलें” सोचकर
ग़ैर की ठोकरों में ही रहते हैं जो
है डटे रहना पैसे कि खातिर वहां
इन्तेहाओं तक अपमान सहते हैं वो
मैं नहीं कहता परदेस जाओ नहीं,
पर गलत ये की मुड़ के फिर आओ नहीं
दूसरे कि जमीं पर गुज़ारा करो
लेकिन अपनी जमीं को भुलाओ नहीं
तुम हो आज़ाद किसकी भी सेवा करो
दुश्मनी पर ‘वतन’ से निभाओ नहीं
और शक्ति कहीं कि उठाओ भले
लेकिन माता को अपनी दबाओ नहीं
राम ने था कहा, “चाहे सोने की हो,
ऐसी लंका में मुझको न आराम है|
जन्मभूमि में ही मेरी पहचान है
मेरी जननी वही, मेरा सुख-धाम है|”
जिसने जड़ दी हमें, हमको पहचान दी
हम उसी जड़ को खुद से जुदा कर रहे हैं
वतन छोड़ परदेस को भागते,
क्या यही फ़र्ज़ माँ को अदा कर रहे हैं?
-अरुण सिंह
श्री अरुण जी ने चंद पंक्तियों में बहुत बड़ा सन्देश दिया है. बाहर जाओ अच्छी बात है, किन्तु बाहर जाकर यह नहीं कहो की इस देश में रक्खा ही क्या है. दुनिया को यह कहने को न मिले की भारत देश की सिक्षा में स्वाभिमान और आत्म सम्मान की कमी है.
अरुण जी
बहुत सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई …………………
अरुणोदय बेला में झकझोरा मुझे और पूछा कि हम यहाँ क्या कर रहे हैं?
क्या यही फर्ज माँ को अदा कर रहे हैं?
ध्यान आया गोदामों में सड़े अनाज का, पूछा आप उसका क्या कर रहे हैं?
क्या यही फर्ज माँ को अदा कर रहे हैं?
खून पसीने से उपजाया किसानो ने उसे, आप क्यों उसको तबाह कर रहें हैं?
क्या यही फर्ज माँ को अदा कर रहे हैं?
स्कूलों से लाखों स्नातक हुए, काम न मिलते क्यों जिंदगी बेकार कर रहे हैं?
क्या यही फर्ज माँ को अदा कर रहे हैं?
प्रश्न पूछा है तो भरोसा हो चला|
भारतीय युवा आज मर्द हो चला|
मारो भगाओ भ्रष्टता को, दो यथार्थ आजादी भारत को तुम|
फर्ज माँ को अदा कर रहे हो, दूर कदापि नहीं हैं तुमसे हम|