आसान तो बिल्कुल नहीं
शब्दों का धुँआ बनना
अकेला मन का किला
आँखों को नम कर जाता है
टूट चुकी होती है जब सुबह
हमारे सपने एक-एककर नहीं लाते
बाल उम्र में बिताया गया वक्त
जो फुदक रही होती है डालियों पर
उसे लिखना कितना कठिन हो जाता है
बार-बार निरर्थक कोशिश
कि रोशनी को बांध लूँ अपनी मुट्ठी में
बाजार में तब्दील कर लेने की
उसकी सारी आकांक्षाएं
एक दिन निचोड़ ले जाएंगें
जब अकेला शब्द
बिहड़ घाटियों से
लड़ने की कुव्वत रखता हो
तब सुबह की भूखी नींद
पटरी पर नहीं कसमसाती
और ना ही सींगों के हर मोर्चे पर ही
उग आती है घास
आकांक्षा की आग
मेरे भीतर के गीलापन को
जब नहीं सुखा पाती है
तब कुछ पौध
पत्थर पर भी उग आता है
और बरसाती नदी
आंगन में खदबदाने लगती है
विजय की ऊँची चोटी
नहीं उतरती है पन्नों पर
सुनते रहने का हर वक्त
जब चीख में बदल जाती है
आँसू पोंछकर नंगा हो जाना
और उठा लेना कुल्हाड़ी
असंगतियों को काटने के लिए
धूल-कीचड़ में सनकर रह जाता है ।