आदरणीय लीना जी,
नमस्कार।
हमारे समाज में यथार्थपकर सोच का अभाव या आदर्शवादी सोच की नाटकीयता बहुत सारी सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याओं का कारण है। बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मानवी की बहुत सारी समस्याएँ इसी के कारण हैं।
हमें बचपन से ही आदर्श, बल्कि खोखले आदर्श घुट्टी में पिलाये गये हैं। ऐसे खोखले आदर्श जिन्हें बहुत कम उम्र में ही; हमने अनेकों बार धडाम से टूटते और बिखरते हुए देखा है और साथ ही साथ ऐसे खोखले आदर्शों को जाने-अनजाने तोडने वालों के विरुद्ध, विशेषकर उन लोगों को आग उगलते भी देखा है, जिनके स्वयं के कोई नैतिक या सामाजिक प्रतिमान या मौलिक आधार ही नहीं होते हैं, जो स्वयं आदर्शभंजक होते हैं।
हमारा समाज विरोधाभाषों पर खडा हुआ है। इसी कारण समाज की दिनप्रतिदिन दुर्गती भी हो रही है। आपने ऐसे ही विरोधाभाषों को स्वीकारोक्ति प्रदान करके यथार्थपरक सोच को मान्यता प्रदान करने का साहसिक प्रयास किया है। यह कहना आसान है कि इसे और अच्छा या बेहतर किया जा सकता था। करने और करने के लिये कहने-इन दोनों बातों में भी यथार्थ एवं आदर्श का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है।
मैंने आपको पहली बार पढा है। मेरी शुभकमानाएँ सभी अच्छे लोगों के साथ हैं। मैं स्त्री स्वाधीनता के यथार्थ चिन्तन का पक्षधर हँू। आशा है आपका चिन्तन उत्तरोत्तर सृजन की धरा पर पल्लिवित और पुष्पित होता रहेगा।
आपने मुझे अपनी कविता को पढने के लिये, लिंक भेजा, जिसके लिये मैं आपका आभारी हँू।
यदि मेरी प्रतिक्रिया किसी कारण/दृष्टिकोंण से अनुचित लगी हो तो कृपया मुझे स्पष्ट शब्दों में अवगत अवश्य करावें, जिससे कि मुझे आत्मालोचन करने का सुअवसर प्राप्त हो सके। धन्यवाद।
उक्त प्रतिक्रिया को पढने के बाद यदि आपके पास समय एवं और इच्छा हो तो आप निम्न ब्लॉग पर मुझे पढ सकती हैं :- https://presspalika.blogspot.com/
दुरस्त फ़रमाया आपने ;कतिपय छपास पिपासुओं की छप्प लोल्लुप्ता में आकंठ डूबी बिलम्बित अतृप्त आकांक्षा को उद्दीपित करने में विभुतिनारायण की खलनायकी सफल रही .लीना की कविता अच्छी है .कविता को और कलात्मक रूप दिए जाने की गुन्जाईस है .
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आदरणीय लीना जी,
नमस्कार।
हमारे समाज में यथार्थपकर सोच का अभाव या आदर्शवादी सोच की नाटकीयता बहुत सारी सामाजिक एवं पारिवारिक समस्याओं का कारण है। बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मानवी की बहुत सारी समस्याएँ इसी के कारण हैं।
हमें बचपन से ही आदर्श, बल्कि खोखले आदर्श घुट्टी में पिलाये गये हैं। ऐसे खोखले आदर्श जिन्हें बहुत कम उम्र में ही; हमने अनेकों बार धडाम से टूटते और बिखरते हुए देखा है और साथ ही साथ ऐसे खोखले आदर्शों को जाने-अनजाने तोडने वालों के विरुद्ध, विशेषकर उन लोगों को आग उगलते भी देखा है, जिनके स्वयं के कोई नैतिक या सामाजिक प्रतिमान या मौलिक आधार ही नहीं होते हैं, जो स्वयं आदर्शभंजक होते हैं।
हमारा समाज विरोधाभाषों पर खडा हुआ है। इसी कारण समाज की दिनप्रतिदिन दुर्गती भी हो रही है। आपने ऐसे ही विरोधाभाषों को स्वीकारोक्ति प्रदान करके यथार्थपरक सोच को मान्यता प्रदान करने का साहसिक प्रयास किया है। यह कहना आसान है कि इसे और अच्छा या बेहतर किया जा सकता था। करने और करने के लिये कहने-इन दोनों बातों में भी यथार्थ एवं आदर्श का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है।
मैंने आपको पहली बार पढा है। मेरी शुभकमानाएँ सभी अच्छे लोगों के साथ हैं। मैं स्त्री स्वाधीनता के यथार्थ चिन्तन का पक्षधर हँू। आशा है आपका चिन्तन उत्तरोत्तर सृजन की धरा पर पल्लिवित और पुष्पित होता रहेगा।
आपने मुझे अपनी कविता को पढने के लिये, लिंक भेजा, जिसके लिये मैं आपका आभारी हँू।
यदि मेरी प्रतिक्रिया किसी कारण/दृष्टिकोंण से अनुचित लगी हो तो कृपया मुझे स्पष्ट शब्दों में अवगत अवश्य करावें, जिससे कि मुझे आत्मालोचन करने का सुअवसर प्राप्त हो सके। धन्यवाद।
उक्त प्रतिक्रिया को पढने के बाद यदि आपके पास समय एवं और इच्छा हो तो आप निम्न ब्लॉग पर मुझे पढ सकती हैं :-
https://presspalika.blogspot.com/
बहुत बढ़िया
दुरस्त फ़रमाया आपने ;कतिपय छपास पिपासुओं की छप्प लोल्लुप्ता में आकंठ डूबी बिलम्बित अतृप्त आकांक्षा को उद्दीपित करने में विभुतिनारायण की खलनायकी सफल रही .लीना की कविता अच्छी है .कविता को और कलात्मक रूप दिए जाने की गुन्जाईस है .