इधर रोये बिटिया उधर रोये बिटिया
पढ़ पढ़ के पा पा की प्यारी सी चिठिया|
भईयों ने अपनी गृहस्थी सजा ली
पापा से सबने ही दूरी बना ली
अम्मा की तबियत हुई ढीली ढाली
उन्हें अब डराती है हर रात काली
सुबह शाम हाथों से खाना बनाना
धोना है बरतन और झाड़ू लगाना
जीने का बस एक ये ही बहाना
बुढ़ापे का कंधे पर बोझा उठाना
इन्हीं दुख गमों से पकड़ ली है खटिया
इधर रोये बिटिया उधर रोये बिटिया
पढ़ पढ़ के पापा की प्यारी सी चिट्ठियाँ|
सदा से रहे घर में पैसों के लाले
पापा शुरू से बड़े भोले भाले
जवानी में मां थी भली और चंगी
बुढ़ापे में छूटे सभी साथी संगी
पापा का घर से यूं पैदल निकलना
बहुत ही कठिन है सड़क पार करना
घिसटते घिसटते ही बाज़ार जाना
सब्जी का लाना और गेहूं पिसाना
रखे सिर पे गठरी बहुत दूर चकिया
इधर रोये बिटिया उधर रोये बिटिया
पढ़ पढ़ के पापा की प्यारी सी चिट्ठियाँ |
पापा ने बच्चों कॊ हंस कर पढ़ाया
जो भी कमाया उन्हीं पर लगाया
अपने लिये भी तो कुछ न बचाया
न खेती खरीदी न घर ही बनाया
अम्मा बेचारी रहीं सीधी सादी
बेटों की हंसकर गृहस्थी बसा दी
न मालूम मुक्क्दर ने फिर क्यों सजा दी
बुढ़ापे में बिलकुल ही सेहत गिरा दी
न दिखती कहीं पर सहारे की लठिया
इधर रोये बिटिया उधर रोये बिटिया
पढ़ पढ़ के पापा की प्यारी सी चिट्ठियाँ |
अच्छे शब्दो का चुनाव है। अच्छी लगी।.
Thanks to all viewers
ह्रदय को छू गयी आपकी कविता|
धन्यवाद|
खुबसूरत कविता के लिए कवि हार्दिक बधाई….
अच्छी लगी बिटिया कविता
Prakashan ke liye dhanyavad Prabhudayal