कविता:सपने का सच-मोतीलाल

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एक दिन

मैँने देखा एक सपना

सपने मेँ औरत को

मैँने छुआ

एक ठंडी सी लहर

काटती हुई निकल गयी

 

आँखेँ कुछ कहना चाहती थी

और देखना चाहती थी

सपने मेँ अच्छी औरत

कि कहीँ लिजलिजा सा काँटा

आँखोँ मेँ धस गयी

और छिन ली सारी रोशनी

 

वह तिलमिलायी थी

और हाथोँ की रेखाओँ को

काट डाला था

और घुटने के बल बैठी

आकाश को खा जाना चाहती थी

उसकी आँखेँ

टिक गयी थी आकाश के परे

 

सपने मेँ

औरत का होना

या नदी का

धरती का

हवा का

पेड़ोँ का

या चीखोँ का

सुकून की बात नहीँ होती

 

आज ये कटने को बेबस

जड़ोँ के तलाश मेँ

सपने बोते रहते हैँ हर पल ।

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