कविता / दुखदैन्य हारिणी

दुखदैन्य हारिणी के दुख को अब हम सबको हरना होगा,

चिंताहरिणी की चिंता पर अब कुछ चिंतन करना होगा।

कोई भविष्य में दिव्य नीर को भूतकाल की संज्ञा दे,

इससे पहले ही पतित पावनी का जल पावन करना होगा।

जय गंगा मईया का स्वर जब मुख से उच्चारित करते हो,

क्यों नही तभी संकल्प यही मन में अनुप्राणित करते हो ?

गंगा अस्तित्व बचाऐंगे फिर उसको दिव्य बनाऐंगे,

व्रत ऐसा अपने अंतर्मन में क्यों नहीं संचारित करते हो?

अब यही प्रतिज्ञा यही निश्चय जन के मन में भरना होगा,

आर्द्र हो चुके जलस्वर को फिर से सुरमय करना होगा।

कोई भविष्य में दिव्य नीर को भूतकाल की संज्ञा दे,

इससे पहले ही पतित पावनी का जल पावन करना होगा।

दुखदैन्य हारिणी के दुख ………..

खरदूषण बने प्रदूषण के घातक प्रहार घनघोर हुए।

कलविष्ठा से कलुषित होती मां के क्रंदन चहुओर हुए।

गंगापुत्रों अब तो जागो अपशिष्ट न अब मां में त्यागो,

सुनो मां की संतप्त सिसकियों के स्वर अब तो शोर हुए।

तारणकरिणी को तापों से अब हम सबको तरना होगा।

इसकी रक्षाहित रूद्रकेश सम व्यूह कोई रचना होगा

कोई भविष्य में दिव्य नीर को भूतकाल की संज्ञा दे

इससे पहले ही पतित पावनी का जल पावन करना होगा।

दुखदैन्य हारिणी के दुख……………………

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