अपनी भतीजी के साथ
जिसे मैंने पढाई छोड़ते वक्त
‘कृष्णकली’ भेंट की थी.
मेरा परिचय उससे उसने दिया
”बेटा ये मेरे साथ पढ़ें हैं”.
भतीजी तीन-चार साल की
समझ ना पाई कि
साथ पढ़े होना कौन सा रिश्ता है.
वो पूछ बैठी उससे
”मैं इन्हें क्या कहूँ मौसी?”
वो पहले अचकचाई, फिर
अपने आस-पास बहुतों को देखकर बोली
”मामा”
किन्तु मैंने उसकी आँखों में
देख लिया था
हाथी का दिखाने का दांत
जो ‘मामा’ में दिख रहा था.
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अखिल कुमार ‘भ्रमर’