कविता – भविष्य

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मोतीलाल

मैंने अपने ढंग से रची है एक कविता

पूरी कविता घुमती है

उन अंधी सुरंगों की गलियों मेँ

जहाँ नहीं पड़े कभी भी मानव के कदम ना कोई चिड़िया ही चहचहायी कभी

 

नुकीले चट्टानों से जख्म खायी कविता

बैल के कंधे बन गये

घोड़े की नाल सी मजबूत कविता

भुस्स कालो की बस्ती में

समा गया हो जैसे

और बिठा लिया हो अंधेर नगरी

अपने भीतर भी

 

सूरज सी लाल लकीरें

कब की खत्म हो चुकी है

बची है राख

स्याह काली राख लकीरों के शक्ल में जहाँ चमगादड़ मंडराते हैं

और रोते हैं सियार

 

उन गुफाओं से लड़ने की अंतिम सदी चिखती हुई भाग जाती है

 

मैं यह भी नहीं जानता कि पढ़ा जाए ही सारी अंतिम संवेदनाएँ

और बना लिया जाए वह धार

जहाँ नहीं पहुंचेगे कभी

अंधी सुरंगों के पास

उन काली कविताओं के तलाश में

 

उन अंधी सुरंगों से

मेरी कविताएँ लड़ेगी

और बनाएगी सीढियाँ

जहाँ पहुंचेगी

एक न एक दिन सभ्यताएँ ।

 

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मोतीलाल
जन्म - 08.12.1962 शिक्षा - बीए. राँची विश्वविद्यालय । संप्रति - भारतीय रेल सेवा में कार्यरत । प्रकाशन - देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं लगभग 200 कविताएँ प्रकाशित यथा - गगनांचल, भाषा, साक्ष्य, मधुमति, अक्षरपर्व, तेवर, संदर्श, संवेद, अभिनव कदम, अलाव, आशय, पाठ, प्रसंग, बया, देशज, अक्षरा, साक्षात्कार, प्रेरणा, लोकमत, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, प्रभातखबर, नवज्योति, जनसत्ता, भास्कर आदि । मराठी में कुछ कविताएँ अनुदित । इप्टा से जुड़ाव । संपर्क - विद्युत लोको शेड, बंडामुंडा राउरकेला - 770032 ओडिशा

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