pravakta.com
कविता : फूलों-सी हँसती रहो - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
कई दिनों से तुम टूटी कलम से लिखी कविता-सी बिखरी- बिखरी, स्वयं में टूटी, स्वयं में सिमटी, अनासक्‍त अलग-अलग-सी रहती हो कि जैसे हर साँझ की बहुत पुरानी लम्बी रूआँसी कहानी हो तुम -- सूर्य की किरणों पर जिसका अब कोई अधिकार न हो और अनाश्रित रात की शय्या भी…