जो हो
बहुत कोशिशोँ के बाद
आज देख पाया
अपना चेहरा
और पाया
बादल सा उड़ता
एक सुखद अनुभूति
अब खड़ा रह पाऊँगा मैँ
आईने के सामने
जिन दिनोँ
मैँ करता करता कोशिश
अपने चेहरे को देख पाऊँ
कटी-फटी लाशेँ
मुम्बई की
उतर आता आईने मेँ
उन मासूम बच्चोँ की चीख
नहीँ सह पाता हूँ मैँ
टूट जाता है सभी द्वार
और टूट जाता है आईना
उन दिनोँ
कोशिश करता
कोई अच्छी सी कविता लिखूँ
जब पढ़ता अपनी कविता
गर्म खून से सना
लोथड़ोँ के शक्ल मेँ
मुम्बई का इतिहास
उतर आता है कागज पर
ये कैसे हुआ
कविता की जगह
यह लहू कैसे टपका
आजतक नहीँ समझ पाया हूँ
गयी रात
मैँने सुना
कश्मीर मेँ चुनाव
बहुत शांति से गुजरा
मुझे लगा
आईना मुझसे बदल गया है
या फिर
चंद उन हाथोँ मेँ चला गया है
जो हो
देख तो पाता हूँ
अपना चेहरा
लहू से भीँगे
इस माटी के आईने मेँ ।