उसी तुलसी के विरवा के पास
केले के झुरमुटों के नीचे
पीताम्बर ओढ़े वो औरत
नित्य की भांति
दियना जला रही थी !
मै मिचकती आँखों से
उसे देखने में रत था ,
वो साधना
वो योग
वो ध्यान
वो तपस्या,
उस देवी के दृढ संकल्प के आगे नतमस्तक थे !
वो नित्य अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थी
और मैं अनभिज्ञ
अपनी दलान से,
उसे मौन देखता था !
आखिर एक दिन मैंने अपना मौन व्रत तोड़ दिया
हठात पूछ पडा
यह सब क्या है…?
क्यों है?
उसने गले लगा कर कहा ,
सब तुम्हारे लिए
और यह तथ्य मेरे ज्ञानवृत्त के परे था !
किन्तु इतना सुनते ही
मेरा सर भी नत हो गया !
उस तुलसी के बिरवे पर नहीं ,
उस केले के झुरमुट पर नही
उस ज्योतिर्मय दियने पर भी नहीं ….
मेरा सर झुका और झुका ही रह गया
उस देवी के देव तुल्य चरणों पर !
उसके चिरकाल की तपस्या का फल ,
मुझे उसी पल मिलता नज़र आया
क्योंकि….
परहित में किसी को ,
कठोर साधना
घोर तपस्या
सर्वस्व न्योछावर करते प्रथम दृष्टया देखा था !
अपनी दिनचर्या के प्रति अडिग वो औरत
मेरी माँ थी …मेरी माँ !
उस अल्पायु में मै
माँ शब्द को बहुत ज्यादा नहीं जान पाया था ,
पर,
उस दिन के अल्प संवाद ने
माँ शब्द को परिभाषित किया
और मै संतुष्ट था !
मुझे माँ की व्याख्या नहीं परिभाषा की जरुरत थी
माँ की व्याख्या इतनी दुरूह है कि
मै समझ नहीं पाता !
पर मै संतुष्ट था
संतुष्ट हूँ !
नत था
आज भी नत हूँ !
उसके चरणों में
उसके वंदन में
उसके अभिनन्दन में
उसके आलिंगन में
उसके दुलार भरे चुम्बन में !!!!!
-शिवानन्द द्विवेदी “सहर”
i just love ur poem and ur love to ur mother .
मेरे पास तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं….माँ की परिभाषा अच्छी hai.
बहुत सुन्दर कविता, माँ स्मरण आते ही मन स्नेहिल एहसासों से भर जाता है, सचमुच माँ शब्द को परिभाषित करना असंभव है |
बहुत ख़ूबसूरत..
बहुत खूबसूरत कविता है….
अच्छी रचना है आपकी ……………..