कविता : देह – विजय कुमार

देह के परिभाषा

को सोचता हूँ ;

मैं झुठला दूं !

 

देह की एक गंध ,

मन के ऊपर छायी हुई है !!

 

मन के ऊपर परत दर परत

जमती जा रही है ;

देह ….

एक देह ,

फिर एक देह ;

और फिर एक और देह !!!

 

देह की भाषा ने

मन के मौन को कहीं

जीवित ही म्रत्युदंड दे दिया है !

 

जीवन के इस दौड़ में ;

देह ही अब बचा रहा है

मन कहीं खो सा गया है !

मन की भाषा ;

अब देह की परिभाषा में

अपना परिचय ढूंढ रही है !!

 

देह की वासना

सर्वोपरि हो चुकी है

और

अपना अधिकार जमा चुकी है

मानव मन पर !!!

 

देह की अभिलाषा ,

देह की झूठन ,

देह की तड़प ,

देह की उत्तेजना ,

देह की लालसा ,

देह की बातें ,

देह के दिन और देह की ही रातें !

 

देह अब अभिशप्त हो चुकी है

इस से दुर्गन्ध आ रही है !

ये सिर्फ अब इंसान की देह बनकर रह गयी है :

मेरा परमात्मा , इसे छोड़कर जा चूका है !!

 

फिर भी घोर आश्चर्य है !!!

मैं जिंदा हूँ !!!

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