वह सड़क
जिस पर मैँ चल रहा हूँ
तुम्हारे भीतर जाकर
खत्म हो जाती है
वह सड़क
जिस पर तुम चल रही हो
किसी चौराहे पर जाकर नहीँ
मेरे मन के भीतर खत्म होती है
सही है कि
सड़क की कोई मंजिल नहीँ होती
एक दिशा तो होती ही है
उसी दिशा की अंगूलि थामकर
उतर रहा हूँ मैँ आजतक
तुम्हारे मन के चौराहे पर
मंजिल की फिक्र
इन सिमटते समय मेँ
क्या दे पायेगा सुकून
और क्या दे जाएगा सबक
इस नंगे चौराहे पर
वे अमिट शब्द
जिसे ढूँढने मेँ सारी जिँदगी
बासी रोटी बन गयी है
कोई धूप का कतरा भी
नहीँ उतरता है तुम्हारे भीतर
कि देख सकूं
धंसती सड़कोँ मेँ से ही कहीँ
मेरे मन की पक्की सड़क ।