देख के नए खिलौने, खुश हो जाता था बचपन में।
बना खिलौना आज देखिये, अपने ही जीवन में।।
चाभी से गुड़िया चलती थी, बिन चाभी अब मैं चलता।
भाव खुशी के न हो फिर भी, मुस्काकर सबको छलता।।
सभी काम का समय बँटा है, अपने खातिर समय कहाँ।
रिश्ते नाते संबंधों के, बुनते हैं नित जाल यहाँ।।
खोज रहा हूँ चेहरा अपना, जा जाकर दर्पण में।
बना खिलौना आज देखिये, अपने ही जीवन में।।
अलग थे रंग खिलौने के, पर ढंग तो निश्चित था उनका।
रंग ढंग बदला यूँ अपना, लगता है जीवन तिनका।।
मेरे होने का मतलब क्या, अबतक समझ न पाया हूँ।
रोटी से ज्यादा दुनियाँ में, ठोकर ही तो खाया हूँ।।
बिन चाहत की खड़ी हो रहीं, दीवारें आँगन में।
बना खिलौना आज देखिये, अपने ही जीवन में।।
फेंक दिया करता था बाहर, टूटे हुए खिलौने।
सक्षम हूँ पर बाहर घर के, बिखरे स्वप्न सलोने।।
अपनापन बाँटा था जैसा, वैसा ना मिल पाता है।
अब बगिया से नहीं सुमन का, बाजारों से नाता है ।।
खुशबू से ज्यादा बदबू, अब फैल रही मधुबन में।
बना खिलौना आज देखिये, अपने ही जीवन में।।
विनम्र आभार महोदय – आपका स्नेह समर्थन पाकर मेरी रचना धन्य हो गयी – यूँ ही सम्पर्कित रहने की कामना के साथ धन्यवाद
सादर
श्यामल सुमन
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श्यामल सुमन जी,क्या बात कही है आपने?
“मेरे होने का मतलब क्या, अबतक समझ न पाया हूँ।
रोटी से ज्यादा दुनियाँ में, ठोकर ही तो खाया हूँ।।”
या फिर यह भी,
“अब बगिया से नहीं सुमन का, बाजारों से नाता है ।।
खुशबू से ज्यादा बदबू, अब फैल रही मधुबन में।”
बहुत खूब