मोतीलाल/राउरकेला
तुम्हारी देहरी से दूर
तुम्हारी खुश्बू से दूर
इन फसलोँ से दूर
गाँव गली से दूर
उन अनाम सी जगह मेँ
और बसा लूँगी
अपने लिए ठिकाना
तिनके के रूप मेँ
बहा लूँगी पसीना
फीँच लूँगी
अपनी देह को
खून की कीमत मेँ अगोरना
सोख लूँगी आँसूओँ को
आँखोँ मेँ ही कहीँ
और जला लूँगी चूल्हा
जिसमेँ पका तो पाऊँगी
आँसू से लिपटे
आटा से रोटी
और रख लूँगी
तुम्हारे नाम का प्याज
चुप रहने के काँटे
जब नहीँ महकेगी
उस महुए सा
जहाँ चमकती आँखोँ का सूरज
मेरे ह्रदय मेँ उतरा था
और तृष्णा की चौखट पर
खारापन का बबुल
उग आया था
तुम्हारे उसी गाँव मेँ
और पैनी नजरोँ के तीर ने
बेध डाला था
मेरे सपनोँ को
जिसे मैँने तुझे सौँप दिया था
जब मानी थी मैँ
तुझे अपना सबकुछ
आखिर
तुम क्या निकले
और नहीँ थे जब तुम
कैसे चौखट टूटा था
और कैसे खाट
क्या नहीँ जान पाए
उस चौधरी की जात
तुम्हारा आँखेँ मुंद लेना
मुझे सबकुछ बता गया ।
सुन्दर
दिल के दर्द को समेट कर, बयां करती एक बहुत ही मार्मिक रचना.
जिसे मैँने तुझे सौँप दिया था
जब मानी थी मैँ
तुझे अपना सबकुछ
आखिर
तुम क्या निकले
मार्मिक कविता! सुन्दर कविता!!