आम आदमी के साथ क्रूर मज़ाक कर रहे हैं राजनीतिक दल

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरूवार हो हुई कैबिनेट बैठक में नई राष्ट्रीय दूरसंचार नीति २०१२ (एनटीपी) को मंजूरी दे दी गई जिसमें यह व्यवस्था है कि देश में कहीं भी जाएं, आप अपना मोबाइल नंबर बनाए रख सकेंगे| यानी देश भर के लिए नंबर पोर्टेबिलिटी की सुविधा मिलेगी। इस नीति का एक प्रमुख उद्देश्य पूरे देश के लिए एक ही टेलीकॉम लाइसेंस देना और देश भर के लिए एक ही कॉल शुल्क की व्यवस्था लागू करना है। देर-सवेर टेलिकॉम उपभोक्ताओं को रोमिंग से भी मुक्ति मिल जाएगी| हालांकि सरकार की ओर से अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह सुविधा कब से प्राप्त हो पाएंगी लेकिन मोबाईल उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या के मद्देनज़र सरकार का यह कदम स्वागतयोग्य है| किन्तु क्या बढ़ते पेट्रोल के दाम, रुपये की गिरती साख, लुढकती अर्थव्यवस्था तथा मंहगाई के विस्फोट से इतर यह खबर हर मोर्चे पर विफल केंद्र सरकार की ढ़ाल के रूप में तो पेश नहीं की जा रही?

 

गुरूवार को विपक्षी दलों के आवाहन पर बुलाये गए भारत बंद से घबराई केंद्र सरकार ने आम आदमी के गुस्से को ठंडा करने की जद्दोजहद में नई राष्ट्रीय दूरसंचार नीति २०१२ को तो मंजूरी दी ही, वहीं खबर यह भी है कि पेट्रोलियम कंपनियां बढ़े हुए पेट्रोल के दामों में १.६० रुपये की कमी करने पर विचार कर रही हैं| ज़ाहिर है पेट्रोलियम कंपनियों पर पेट्रोल के दाम कम करने बाबत दबाव केंद्र सरकार की ओर से ही आया होगा| यह कितना हास्यास्पद है कि एक ओर तो सरकार यह कहती है कि उसका पेट्रोलियम कंपनियों पर कोई नियंत्रण नहीं है और अंदरखाने वह उनपर दबाव की राजनीति कर बढ़े हुए पेट्रोल के दामों को भी कम करवाती है| वहीं पेट्रोलियम कम्पनियां आम आदमी को धोखे में रखकर मुनाफा कमाए जा रही हैं और धड़ीयाली आंसू भी बहा रही है| जबकि हकीकत यह है कि तीनों पेट्रोलियम कम्पनियां भारी मुनाफा कम रही हैं| २०११ की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ आईओसी को ७४४५ करोड़, एचपीसीएल को १५३९ करोड़ तथा बीपीसीएल को १५४७ करोड़ का शुद्ध मुनाफा हुआ है यानी सरकार को टैक्स चुकाने के बाद| यह आंकड़े तो यह साबित करते हैं कि सरकार और पेट्रोलियम कंपनियों की मिलीभगत से आम जनता हलाकान हो रही है| हफ्ते भर में पेट्रोलियम कंपनियों ने बढ़े हुए पेट्रोल के दामों से अपने कथित घाटे को भी काफी हद तक पूरा कर लिया होगा और अब सरकार की साख को बचाने हेतु इसके दामों में आंशिक कटौती का नाटक कर सरकार को आम जनता की नज़रों में नायक की तरह पेश करने की तैयारी में है| कुल मिलाकर सरकार आम आदमी के हितों पर कुठाराघात भी कर रही है और बाद में हंगामा होने पर मरहम की भी व्यवस्था करती है|

 

जहां तक बात भारत बंद को लेकर अर्थव्यवस्था में नुकसान की बात है तो यह सत्य है कि राजनीतिक दलों ने बंद को राजनीति के ऐसे हथियार के रूप में ईजाद किया है जिसका सत्तारूढ़ दल के पास कोई जवाब नहीं होता| राजनीतिक दल जो बंद का आवाहन करते हैं, उसे सफल बनाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं और अंत में बंद को सफल घोषित कर दिया जाता है| आम आदमी की इस बंद में कितनी और क्या सहभागिता रही इसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता| कुल मिलाकर बंद का हथकंडा अब थोपा हुआ सा लगने लगा है| चूँकि इससे आम आदमी का तो कोई भला होता नहीं है उलटे राजनीतिक दलों को सियासी रोटियाँ सेंकने का साधन अवश्य प्राप्त हो जाता है| वैसे अब इस सवाल पर गंभीरता से चिंतन-मनन करने का वक्त आ गया है कि क्या हर सियासी हथकंडे की प्राप्ति हेतु बंद का रास्ता अपनाना सही है? आए दिन होने वाले बंद पर लगाम कसने के उद्देश्य से भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने १९९८ में कोशिश की थी किन्तु राजनीति दलों ने उसकी कोशिश को परवान नहीं चढ़ने दिया|

 

बंद से जहां आम जन-जीवन तो प्रभावित होता ही है साथ ही अर्थव्यवस्था पर भी करार प्रहार होता है| एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ गुरूवार को हुए भारत बंद से कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने देशभर के लगभग 6,000 करोड़ रुपये का रिटेल बिजनेस प्रभावित होने और इससे सरकार को अप्रत्यक्ष करों के रूप में करीब 8000 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान होने का अनुमान लगाया है। बंद से मुंबई के सर्राफा बाजार को 300 करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ा है। देशभर के 15,000 व्यापारिक संगठनों ने भारत बंद का समर्थन करते हुए किसी तरह का कारोबार नहीं किया। देश भर में लगभग पांच करोड़ से ज्यादा व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रहे। इससे ट्रांसपोर्टरों व बैंकों के कामकाज पर भी खासा असर पड़ा। इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा, वे राजनीतिक दल जिन्होंने बंद का आवाहन किया, सरकार जिसकी नीतियों के विरोध में कथित बंद हुआ या वह आम आदमी जो इन दो पाटों के बीच पिसता चला जा रहा है|

 

सच तो यह है कि सरकार हो या विपक्ष; आम आदमी के साथ होने का इनका दावा खोखला ही नज़र आता है| आम आदमी की मजबूरियाँ का दोहन दोनों ही समय-समय पर कर रहे हैं| राजनीति में आई गिरावट तथा इसके मूल उद्देश्य से भटक जाने की प्रवृति ने आम आदमी की तकलीफों में इज़ाफा ही किया है| ज़ख्म देकर मरहम लगाने की कहावत को भी सभी चरितार्थ कर रहे हैं| ऐसे में आम आदमी जाए तो जाए कहाँ? नई राष्ट्रीय दूरसंचार नीति २०१२ से सरकार आम आदमी के ज़ख्मों पर कितना और क्या मरहम लगा पाएगी और विपक्ष बंद करवाकर सरकार को कहाँ तक झुका पायेगा? कुल मिलाकर तमाम राजनीतिक दल आम आदमी के साथ राजनीति के नाम पर क्रूर मज़ाक कर रहे हैं|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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