राजनीतिक दलों में पारदर्शिता लाने के नजरिये से इन्हें आरटीआर्इ के दायरे में लाना एक ऐतिहासिक घटना है। केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाकर उल्लेखनीय पहल की है। अब प्रमुख दल मांगे गए सवाल का जवाब देने के लिए बाध्यकारी होंगे। अब चिंता यही है कि केंद्र सरकार जानकारी देने की इस अनिवार्यता को कहीं, जिस तरह से सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार कानून से मुक्त कर दिया गया है, कहीं उसी तर्ज पर राजनीतिक दलों को जानकारी देने के बंधन से मुक्त न कर दे ? मौजूदा स्थिति में कोर्इ भी राजनीतिक दल आरटीआर्इ के दायरे में आना नहीं चाहता। क्योंकि वे औधोगिक घरानों से बेहिसाब चंदा लेते हैं और फिर उनके हित साधक की भूमिका में आ जाते हैं।
मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा और सूचना आयुक्त एमएल शर्मा व अन्नपूर्णा दीक्षित की पूर्ण पीठ ने अपने फैसले में आरटीआर्इ कानून के तहत फिलहाल छह राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था माना है। इनमें कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा शामिल हैं। आगे इस फेहरिश्त में अन्य दलों का भी आना तय है। समाजवादी पार्टी, अकाली दल, जनता दल और तृणमूल कांग्रेस जैसे बड़े दल आरटीआर्इ के दायरे से फिलहाल बचे रह गए हैं। पीठ ने फैसले में समयबद्ध कार्यक्रम देते हुए कहा है कि दलों के अध्यक्ष व महासचिव छह सप्ताह के भीतर अपने मुख्यालयों में मुख्य सूचना अधिकारी की नियुकित करें और आगामी चार सप्ताह में जो भी जानकारी हेतु अर्जियां लंबित हैं, उनका निपटारा करें। साथ ही जानकारी अपने दल की वेबसाइट पर भी डालें। पीठ ने यह फैसला आरटीआर्इ कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और एसेसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स के प्रमुख अनिल बैरवाल के आवेदनों पर सुनाया है। दरअसल इन कार्यकर्ताओं ने इन छह दलों से उन्हें दान में मिले धन और दानदाताओं के नामों की जानकारी मांगी थी। लेकिन पारदर्शिता पर पर्दा डाले रखने की दृष्टि से सभी दलों ने जानकारी देने से इनकार कर दिया था।
सुनवार्इ के दौरान अनिल बैरवाल ने तीन सैद्धांतिक बिंदुओं का हवाला देते हुए दलों को आरटीआर्इ के दायरे में लाने की पैरवी की थी। एक, निर्वाचन आयोग में पंजीकृत सभी दलों को केंद्र सरकार की ओर से परोक्ष-अपरोक्ष मदद मिलती है। इनमें आयकर जैसी छूटें और आकाशवाणी व दूरदर्षन पर मुफत प्रचार की सुविधाएं शामिल हैं। दलों के कार्यालयों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें भूमि और भवन बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध कराती हैं। ये अप्रत्यक्ष लाभ सरकारी सहायता की श्रेणी में आते हैं। दूसरा सैद्धांतिक बिंदु था कि दल सार्वजनिक कामकाज के निश्पादन से जुड़े हैं। साथ ही उन्हें अधिकार और जवाबदेही से जुड़े संवैधानिक दायित्व प्राप्त हैं, जो आम नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। चूंकि दल निंरतर सार्वजनिक कर्तव्य से जुड़े होते है, इसलिए पारदर्शिता की दृष्टि से जनता के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। लिहाजा पारदर्शिता के साथ राजनीतिक जीवन में कर्तव्य की पवित्रता भी दिखार्इ देनी चाहिए। तीसरा बिंदु था कि दल सीधे संवैधानिक प्रावधान व कानूनी प्रकि्रयाओं से जुड़े हैं, इसलिए भी उनके अधिकार उनके पालन में जवाबदेही की शर्त अंतनिर्हित है। राजनीतिक दल और गैर सरकारी संगठन होने के बावजूद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से सरकार के अधिकारों व कर्तव्यों को प्रभावित करते हैं, इसलिए उनका हस्तक्षेप कहीं अनावश्यक व दलगत स्वार्थपूर्ति के लिए तो नहीं है, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित होना जरुरी है। आजकल सभी दलों की राज्य सरकारें सरकारी योजनाओं को स्थानीय स्तर पर अमल में लाने के बहाने जो मेले लगाती हैं, उनकी पृष्टभूमि में अंतत: दल को शकित संपन्न बनाना ही होता है। इस बहाने वे दलगत राजनीति को ही हवा देती हैं। सरकार, सरकारी अमले पर भीड़ जुटाने का दबाव डालती हैं और संसाधनों का भी दुरपयोग करती हैं। लिहाजा जरुरी था कि राजनीतिक दल आरटीआर्इ के दायरे में आएं जिससे उनकी बेजा हरकतों पर एक हद तक अंकुश लगे।
राजनीतिक दल भले ही आरटीआर्इ के दायरे में आने से मना करते रहे हों, किंतु दलों को केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा जानकारी देने से बाध्य किए जाने के पहले से ही देश के व्यापारिक घरानों ने दलों को वैधानिक तरीके से चंदा देने का सिलसिला शुरु कर दिया है। डेढ़ साल पहले अनिल बैरवाल के ही संगठन ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी जुटार्इ थी। इस जानकारी से खुलासा हुआ था कि उधोग जगत अपने जन कल्याणकारी न्यासों के खातों से चैक द्वारा चंदा देने लग गए हैं। इस प्रकि्रया से तय हुआ कि उधोगपतियों ने एक सुरक्षित और भरोसे का खेल खेलना शुरू कर दिया है। सबसे ज्यादा चंदा कांग्रेस को मिला है। 2004 से 2011 में कांग्रेस को 2008 करोड़ रुपए मिले, जबकि दूसरे नंबर पर रहने वाली भाजपा को इस अवधि में 995 करोड़ रुपए मिले। इसके बाद बसपा, सपा और राकांपा हैं। अब तक केवल 50 दानदाताओं से जानकारी हासिल हुर्इ है। जिस अनुपात में दलों को चंदा दिया गया है, उससे स्पष्ट होता है कि उधोगपति चंदा देने में चतुरार्इ बरतते हैं। उनका दलीय विचारधारा में विष्वास होने की बजाय दल की ताकत पर दृष्टि होती है। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा की सरकारें रहने के दौरान देश के दिग्गज अरब-खरबपति चंदा देने की होड़ में लगे रहे।
यहां सवाल उठता है कि यदि लोकतंत्र में संसद और विधानसभाओं को गतिशील व लोक-कल्याणकारी बनाए रखने की जो जवाबदेही दलों की होती है, यदि वहीं औधोगिक घरानों, माफिया सरगनाओं और काले व जाली धन के जरिये खुद के हित साधन में लग जाएंगे तो उनकी प्राथमिकताओं में जन-आकांक्षाओं की पूर्ति की बजाय, वे उधोगपतियों के हित संरक्षण में लगी रहेंगी। आर्थिक उदारवाद के पिछले दो दशकों के भीतर कुछ ऐसा ही देखने में आया है। अब आशंका यही है कि कहीं केंद्र सरकार आयोग के इस फैसले को राजनीतिक दबाव के चलते कोर्इ कानूनी आदेश लाकर रदद न कर दे ? क्योंकि महज कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर की मंशापूर्ति के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने सीबीआर्इ को सूचना-कानून के दायरे से मुक्त कर दिया था। जबकि सीबीआर्इ को आरटीआर्इ के दायरे में लाने का फैसला संसद के बहुमत से हुआ था। बहरहाल ताजा फैसले के तारतम्य में केंद्रीय सूचना आयेाग – पीठ की पीठ थपथपानी होगी।