​ ई जो है पॉलिटिक्स…!!


तारकेश कुमार ओझा
राजनयिक और कूटनीतिक दांव – पेंच क्या केवल खादी वाले राजनीतिक जीव या  सूट – टाई वाले एरिस्टोक्रेट लोगों के बीच ही खेले जाते हैं। बिल्कुल नहीं। भदेस गांव – देहातों में भी यह दांव खूब आजमाया जाता है। बचपन में हमें अभिभावकों के साथ अक्सर घुर देहात स्थित अपने ननिहाल जाना पड़ता था। जहां सगे तो नहीं लेकिन कुछ चचेरे मामा रहते थे। पहुंचने पर स्वागत से लेकर रवानगी पर भावभीनी विदाई के साथ हमें मामा – मंडली से वह सब कुछ मिलता था, जिसकी ननिहाल में अपेक्षा की जाती है। लेकिन कुछ बड़े होने पर जब हमने बार – बार वहां जाने की वजह जानने की कोशिश की , तो पता चला कि हमारी पुश्तैनी जमीन को लेकर अपने उन्हीं चचेरे मामाओं के साथ मुकदमा चल रहा है। इसी के चलते हमें बार – बार वहां जाना पड़ता था। गांव – देहातों में कूटनीति की दूसरी मिसालें भी मिली। जब देखा जाता कि जीवन के सुख – दुख में भेंट – मुलाकात से लेकर बोल – चाल तक में जरा भी भनक न लगने देने के बावजूद कुछ रिश्तेदारों के बीच मुकदमेबाजी की जानकारी होती। गांवों में एेसे उदाहरण अनेक मिल जाएंगे , जिसके तहत सुना जाता है कि मुकदमे के सिलसिले में कचहरी जा रहे वादी औऱ प्रतिवादी एक साथ घर से निकलते ही नहीं बल्कि लौटते भी थे। दूसरी ओर उनके बीच मुकदमेबाजी भी अनवरत चलती रहती। युवावस्था तक हम देशी – विदेशी राजनीति में रुचि लेने लगे तो यह सोचकर भी हैरत होने लगती कि सीमा पर चलने वाले हाथ बैठकों में कैसे गर्मजोशी से मिलते हैं। चिर – परिचित प्रतिद्वंदी पाकिस्तान के मामले में तो समझ में नहीं आता कि वह अपने साथ दोस्ती चाहता है या दुश्मनी। कभी सीमा पर बारिश के पानी की तरह गोलियां बरसी तो कुछ दिन बाद ही वहां का कोई प्रतिनिधिमंडल देश में राजनेताओं से हाथ मिलाता नजर आता।  पूर्व हुक्मरान जनरल जिया उल हक के कार्यकाल में एक समय पाकिस्तान के साथ देश के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए थे। लेकिन उसी दौर में अचानक जनरल साहब  क्रिकेट देखने देश आ गए। फिर तो उनका जो स्वागत हुआ और भोज में जितने अाइटम परोसे गए, अखबारों में उसका विवरण पढ़ कर ही हमारी आत्मा तृप्त हो गई। थोड़ी समझ और बढ़ने पर हमने महसूस किया कि किस तरह ताकतवर देशों के हुक्मरान  एक ही ट्रिप में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की यात्रा एक साथ निपटा लेते । वे जब भारत में होते तो उनके सुर अलग होते, और पाकिस्तान जाते ही सुर बदल भी जाते। पिछले दो दशकों में हमने चीन- श्रीलंका से लेकर नेपाल और बांग्लादेश तक से रिश्ते बनते – बिगड़ते देखा। स्मरण शक्ति पर जोर देने से याद आता है कि किस तरह 90 के दशक में एक छोटे पड़ोसी देश से अपने देश के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए। इसके नेपथ्य में दूसरे ताकतवर पड़ोसी की कारस्तानी बताई गई। लेकिन बताया जाता है कि बदले हालात में जब छोटे पड़ोसी  ने ताकतवर के समक्ष चीनी से लेकर केरोसिन जैसी अपनी बुनियादी जरूरतें रखी तो ताकतवर ने कमजोर को यह सब भारत से ही लेते रहने की सलाह बिना मांगे दे दी। अब इसी साल गणतंत्र दिवस पर भारत आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश की तारीफ के पुल ही बांध दिए, तो सवा सौ भारतीयों की तरह अपना दिल भी बाग – बाग हो गया। लेकिन रवानगी के कुछ दिन बाद ही उन्होंने विपरीत बातें भी कहनी शुरू कर दी। हाल में उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में भारत में कथित रूप से असिहष्णुता बढ़ने पर गंभीर चिंता जताई। आश्चर्य कि हाल में हुए अपने भारत दौरे के दौरान उन्होंने देशवासियों का दिल जीतने की भरपूर कोशिश की। लेकिन कुछ दिन बाद ही उनके सुर बदल गए। लगता है कि गांव – देहात से लेकर राष्ट्रीय – अंतर राष्ट्रीय मंचों पर कूटनीति का यह खेल अनवरत चलता ही रहेगा।

 

Previous articleवायु प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए बड़ी चुनौती
Next articleइस्लाम, आईएसआईएस और जार्डन का अभियान
तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here