राजनीति और मीडिया के आपसी संबंधों पर लिखना बड़ा ही पेचीदा मसला है। आज जैसा की राजनीति तथा मीडिया के बारे में हम जानते हैं उस सबसे यह दोनों ही काफी आगे (?) निकल गए हैं। अब न वह राजनीति है और स्वाभाविक रूप से न ही वह मीडिया ही रही है। समय के साथ राजनीति तथा मीडिया की नई परिभाषाएं आ गईं हैं तथा उन्हीं के आधार पर इनके आपसी संबंधों को भी देखा जाना चाहिए।
भारत की स्वतंत्रता के समय की राजनीति तथा आज की राजनीति के बारे में किसी ने लिखा था-
‘तब सेवा का भाव था और सत्ता कमजोर,
अब सत्ता का भाव है और सेवा कमजोर।‘
यानि, हम कह सकते हैं कि राजनीति एक प्रोफेशन के रूप में लोगों को भाने लगा है। सबसे बड़ी बिडंबना यह भी है कि जब कोई और रास्ता नहीं बच जाता है तो लोग राजनीति करने लगते हैं। (इस मामले में इक्का-दुक्का अपवाद हो सकता है।) लोगों में एक मानसिकता बन गई है कि राजनीति में आने के लिए झूठ और फरेबी तथा गुंडागर्दी ही सबसे बड़ी योग्यता है। राजनीति के बारे में समाज में किस प्रकार की छाप बनी है इसे इस वाकये से आसानी से समझा जा सकता है। एक बार अपने पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम किसी विद्यालय में गए थे। डा. कलाम को बच्चों से काफी प्यार है तथा वे अक्सर बच्चों से बातें करने का समय निकाल लेते हैं। उस विद्यालय में भी उन्होंने बच्चों से बातचीत शुरू की तथा उनसे पूछने लगे कि वे भविष्य में क्या बनना चाहते हैं। स्वाभाविक रूप से बच्चे डीएम, एसपी वगैरह-वगैरह बता रहे थे। इसी बीच एक छोटे बच्चे ने कहा कि वह नेता बनना चाहता है। उसके इतना कहते ही वहां पर उपस्थित सभी लोग जोर-जोर से हंसने लगे। इस घटना को कतई एक साधारण घटना के रूप में नहीं लिया जा सकता है। प्रजातंत्र के चार स्तंभ (उसमें भी सबसे मजबूत स्तंभ) विधायिका के बारे में बच्चों में इस प्रकार की भावना, कि अगर कोई कहे कि वह नेता बनना चाहता है तो वह मजाक का पात्र बन जाए, निश्चित रूप से अच्छा संकेत नहीं है।
इसी प्रकार अगर मीडिया को देखा जाय तो मीडिया भी राजनीति की तरह एक प्रोफेशन बन गया है। इसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद इस प्रोफेशन के साथ ग्लैमर भी जुड़ गया है। मीडिया रोजगार के नाम पर भी सबसे फलते-फूलते क्षेत्र के रूप में प्रकट हुआ है। प्रिंट, टीवी चैनल के साथ ही अब इंटरनेट ने इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाओं को बढ़ाया है। रोजगार के साथ ही ग्लैमर के जुड़ जाने से स्वाभाविक रूप से इसके प्रति युवाओं का रुझान बढ़ा है। टीवी पर एक बार आते ही स्टार बन जाने की कल्पना तथा प्रेस कार्ड का धौंस। इसके लिए कई लोग तो मुफ्त में भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। अब जो लोग बिना पैसे के केवल प्रेस कार्ड पर काम करने को तैयार हो जाते हैं निश्चित रूप से प्रेस कार्ड के उसके द्वारा संभावित उपयोग के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। मीडिया के साथ एक और बात जुड़ी है कि यह भी साबुन-तेल की तरह एक उत्पाद बन गया है। इसका उत्पादन होता है तथा इसे बेचा जाता है। बेचे जाने के लिए बाजार चाहिए तथा उत्पादन के लिए पैसा।
लेकिन, मीडिया तथा साबुन-तेल के उत्पाद में एक अंतर है। साबुन-तेल जितना बिकता है उससे उतना ही फायदा होता है। लेकिन, मीडिया के आम लोगों के हाथों बिकने से कोई लाभ नहीं होता बल्कि इसका नुकसान ही होता है। कुछ बड़े अखबार जो तीन रुपये में बिकते हैं उसके लिए कागज तथा छपाई का खर्च ही 10-15 रुपये होता है। यही हाल छोटे अखबारों का भी है। वह अगर दो रुपये में बिकता है तो कागज तथा छपाई का खर्च चार रुपये होता है। इसलिए अगर कोई बड़ा व्यक्ति अखबार खरीद ले तो फिर टेंशन खत्म। मीडिया वाले इसी जुगत में लगे रहते हैं। इस कोशिश में सफलता भी मिल ही जाती है। मीडिया के लिए सरकार के हाथ में डीएवीपी के माध्यम से बहुत कुछ होता है। इस बहुत कुछ के लिए मीडिया के पास भी सरकार के लिए बहुत कुछ होता है। दोनों के बीच इस बहुत कुछ का आदान-प्रदान होता रहता है।
ऐसा नहीं है कि इस सबके बीच जो विपक्ष में हैं उनके पास कुछ भी नहीं होता। उनके पास भी आजकल मीडिया के लिए बहुत कुछ होता है। इस बहुत कुछ के लिए मीडिया उसे अपने अखबार के बारह-पंद्रह पन्नों में बहुत कुछ दे देती है। यह सारा मामला इस बहुत कुछ की लेन देन पर टिका है। तथा मीडिया एवं राजनीति इस बहुत कुछ के ईर्द-गीर्द घूमता रहता है। अब बेचारा निरीह रिपोर्टर जिस अखबार में जाता है वह उसी विचारधारा से बंध जाता है। उसका अपना कुछ नहीं होता है। मीडिया बहुत कुछ के आधार पर अपनी नीति तय करते हैं तथा रिपोर्ट थोड़े कुछ के लिए उस नीति पर चलता है। हां, इस पक्ष तथा विपक्ष के पास मीडिया के लिए बहुत कुछ होने के कारण आम लोगों को भी इसका लाभ मिल जाता है तथा वो दो अखबारों के माध्यम से पक्ष विपक्ष का बहुत कुछ जान लेता है। एक अखबार पढ़नेवाला आम आदमी यह जरूर सोचता रह जाता है :-
‘राजनीति का असली चेहरा देखें किसमें
हर दल के हैं अपने-अपने अखबार दुहाई’
-अमृतांशु कुमार मिश्र