केंद्र सरकार की सत्ता पर काबिज कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार द्वारा उम्मीदवार के नाम की घोषणा में हो रही देरी से अटकलों के गर्म बाजार में यकायक, सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह और सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी द्वारा, तीन नए नामों की घोषणा ने न केवल कांग्रेस के प्रस्तावित उम्मीदवार की जीत पर न केवल संशय पैदा किया बल्कि यूपीए गठबंधन और सरकार के भविष्य पर ही सवालिया निशान लगा दिया. २०१४ को होनेवाले लोकसभा के आम चुनाव से पूर्व और नतीजों की घोषणाओं के पश्चात् यूपीए और एनडीए के गठबन्धनों में टूटन होगी जिसके चलते इन दोनों गठबन्धनों के कुछ पुराने सहयोगियों के जाने और नए बनने के साथ ही कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा गैर-एनडीए, गैर-यूपीए और गैर-वामदलीय गठबंधन बनाने का प्रयास होगा. इस नए बनने वाले गठबंधन में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी की अहम् भूमिका रहनेवाली थी. परन्तु राष्ट्रपति के चुनाव में ममता बनर्जी के साथ मिलकर सोनिया गांधी द्वारा संभावित दो नामों को ख़ारिज करतेहुए तीन नए नाम सुझाने के कुछ समय बाद ही ममता को अकेला छोड़ यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करना क्या दर्शाता है ? एनडीए, वामदल और अब यूपीए मुलायम सिंह की दबाव व भयदोहन की मंशा से की जाने वाली इन चालों को भली-भांति समझ चुके हैं. उत्तरप्रदेश विधानसभा के हाल के चुनावों में कांग्रेस और भाजपा की हवा में उड़ान, माया की नाकामयाबियों और मतों के बिखराव के चलते कोई अन्य विकल्प ना होने के कारण ही समाजवादी दल को बहुमत मिला था. इस बहुमत के कारण ही मुलायम सिंह की महत्वाकांक्षा येन-कैन-प्रकारेण देश के प्रधानमंत्री पद पर कब्ज़ा करने की लगती है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि अमर बेल की भांति बड़े राष्ट्रीय दलों को निगलने को तत्पर क्षेत्रीय दलों का कोई क्षत्रप निकट भविष्य में चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर या देवगौड़ा की भांति देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठे दिखाई दे जाएँ.
संख्या और आंकड़ों के बल पर जोड़-तोड़ के इस खेल ने सर्वोच्च पदों के लिए अनिवार्य योग्यताओं और वरीयताओं की जिस प्रकार अनदेखी का प्रचलन बड़ रहा है इसे देश के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता. राष्ट्रपति जैसे देश के सर्वोच्च सवैंधानिक और गैर-राजनीतिक पद के लिए राजनीतिक दलों में सर्वसम्मति के लिए चल रही खींचतान ने स्थिति को और हास्यापद बना दिया है. देश जानता है कि राजनैतिक दलों ने समय-समय पर किस प्रकार एक दूसरे के प्रति कटुता का परिचय दिया है और निरंतर चल भी रहा है. दूसरे दल के प्रस्ताव का विरोद्ध कर अपने प्रस्ताव के प्रति सर्वसहमति तलाशनेवाले न जाने किस हवा में विचरण कर रहे हैं. दुर्भाग्य तो इस देश के जनसाधारण का है कि वर्तमान व्यवस्था के चलते वह मूकदर्शक बनने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता. अभी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी पर ना तो जनता का सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है और ना ही देश की सेहत पर कोई अंतर पड़नेवाला है कि कौन बनेगा राष्ट्रपति. देश के राजनीतिक हलकों में चल रही इस तमाम खींचतान और उठापठक के पीछे राष्ट्रपति पद और उम्मीदवार की गरिमा न होकर दलों की वर्तमान और भविष्य की लाभ-हानि की राजनीति ही काम कर रही है. विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र भारत के सबसे बड़े सवैंधानिक पद के लिए हो रहे चुनाव में इस देश के जनसाधारण को प्रत्यक्ष रूप से न तो उम्मीदवारों को खड़ा करने और ना ही चुनने या विरोद्ध करने का ही कोई अधिकार है. देश के बदलते परिवेश में यह सब अधिकार देश की जनता के पास होने चाहिए कि वह किस सर्वश्रेष्ठ और सर्व्योग्य व्यक्ति को अपने देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पद पर सुशोभित करना चाहती है. भविष्य में यदि ऐसा संभव हो सका तो इन दोनों पदों पर बैठने वाले व्यक्ति कम से कम देश की जनभावनाओं को समझते हुए जनाकांक्षाओं के प्रति वफादार तो होंगे.
आलेख की विषय वस्तु और उसके शीर्षक में तालमेल नहीं है.अव्वल तो दुनिया में कुछ भी गैर राजनैतिक नहीं है है.सब कुछ राजनीति के मार्फ़त नियंत्रित और निर्धारित हो रहा है.जिन्हें राजनीति का ज्ञान नहीं वे चंद मुठ्ठी भर दिग्भ्रमित जन अपनी नासमझी का चस्मा लगाये हुए गैर राज्नैतिकता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं. इस आलेख में किया गया राजनैतिक विश्लेषण भले ही आलेखकर्ता की अज्ञानता को दर्शाता हो किन्तु प्रकारांतर से ये सब मशक्कत भी शुद्ध राजनैतिकता ही है. यु पि में सपा की जीत के वे कारण नहीं जो इस आलेख में ठुंसे गए हैं बल्कि असल कारण तो मुस्लिम वोट ही हैं जो भरी मात्र में मुलायम और अखिलेश की ओर किसी खास वजह से फ्लोट हुए थे.