‘आप’, आप और बस ‘आप’ !!!

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 नरेश भारतीय

download“ व्यवस्थित संसदीय लोकतन्त्र की बजाए ‘आप’ यदि हर मामले पर ‘जनमतसंग्रह’ के लिए ही अड़ती चली जाएगी तो देश में मुद्दों के समाधान कम और नए मुद्दों को अधिक जन्म मिलेगा. व्यवस्था परिवर्तन के दावे के साथ मैदान में उतरी है ‘आप’ तो फिर वर्तमान व्यवस्था को पूरी तरह समझने और समझाने के लिए, उस कांग्रेस के साथ मिल कर और शासन व्यवस्था में प्रवेश करके अपनी प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन करे, जो उसे समर्थन देने के लिए सर्वाधिक उत्सुक है. अन्यथा दिल्ली प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के सिवा और कोई युक्तियुक्त विकल्प नहीं है.”

उपरोक्त टिप्पणी मैंने फेसबुक में १५ दिसंबर को उस समय दी थी जब दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर आम आदमी पार्टी “आप” के नेतृत्व की नई पैंतरेबाजी तेज़ होना शुरू हुई थी. उपराज्यपाल के द्वारा अरविन्द केजरीवाल को सरकार बनाने का बुलावा दिए जाने के बाद उन्होंने कांग्रेस और भाजपा दोनों को अपनी शर्तों की सूची भेजने की घोषणा की. सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाली भाजपा, जिसे उपराज्यपाल ने सर्वप्रथम सरकार बनाने का न्यौता दिया था, उसके नेता डॉक्टर हर्षवर्धन ने बिना हिचक यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में वे सरकार बनाने में असमर्थ हैं. उसके बाद बारी आई ‘आप’ की. ‘आप’ के नेता, जो अपने चुनाव अभियान से लेकर दिल्ली की जनता के द्वारा किए गए मतदान के बाद परिणाम आने तक, भाजपा और कांग्रेस के घोर आलोचक होने के नाते उनमें से किसी के भी साथ सत्ता समझौते की हर सम्भावना से इनकार करते आए थे, कांग्रेस के द्वारा उनकी सभी शर्तें स्वीकार कर लिए जाने के बाद डगमगाते नज़र आए. यह कहते हुए कि ‘हमें धर्म संकट में डाल दिया गया है’ ‘आप’ के नेतृत्व ने यह घोषणा की कि वे इस पर पुन: जनता का मत लेंगे कि वे कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनाएं या नहीं. अनेक लोगों के लिए यह निराशाजनक संकेत है कि ‘आप’ सत्ता राजनीति के निकट अपना पहला कदम रखने के बाद अपने बूते पर कोई निश्चित निर्णय कौशल दिखाने की अपनी क्षमता का साहस नहीं दिखा पा रही.

जिस लहज़े में ‘आप’ के नेता केजरीवाल ने यह कहा कि ‘अब हर फैसला जनता ही करेगी’ उससे लगा कि वे लोकतंत्र के स्थापित माध्यम चुनावों की प्रक्रिया में से गुजरने के बावजूद, हर छोटे बड़े मामले में, बार बार जनमतसंग्रह की राह पर चलना चाहते हैं. भले ही देश के ‘आम आदमी’ को सुनने में उनका यह तरीका अच्छा लगे, लेकिन वही ‘आम आदमी’, जिसके नाम से कुछ महत्वाकांक्षी व्यक्ति किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री और देश का प्रधानमंत्री तक बनने के स्वप्न संजो रहे हैं, कल को वही ‘आम आदमी’ उनसे यह भी पूछ सकता है कि क्या कुछ भी करने से पहले मेरे पास ही भागे आओगे कि अब या कब आगे क्या करना है या खुद भी निर्णय करोगे? सब जानते हैं कि चुनाव सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य से लड़ा जाता है. जीतने पर अंतत: हर कोई वही करेगा जो उसे अपने लिए या अपनी पार्टी के लिए हितकर लगेगा. जनता की समस्याओं का समाधान भी वे वैसा ही करेंगे जो उनके राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करेगा. जनता का पक्ष यह है कि उसके सरोकार के मुद्दों के समाधान यदि आम जनता के लिए लाभकारी सिद्ध हुए तो ही जनता उनके साथ खड़ी रहेगी अन्यथा वही होगा जो दिल्ली में इस बार कांग्रेस का हुआ है. इसी परिप्रेक्ष्य में क्या चुनावों के माध्यम से जनप्रतिनिधित्व की वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था पर्याप्त नहीं? जनमत ही है कि दिल्ली में भाजपा सत्ता के निकटस्थ होते हुए भी सरकार नहीं बना पा रही. यह भी जनमत है कि नवोदित पार्टी ‘आप’ स्पष्ट जनादेश न मिलने पर भी, अपनी शर्तों पर ही सही, पराजित कांग्रेस पार्टी के साथ मिल कर या उसके बाहरी समर्थन से सरकार बनाने के अपने लोभ का संवरण नहीं कर पा रही. यदि ऐसा नहीं है तो भाजपा की तरह ‘आप’ के नेता ने भी उपराज्यपाल को अपना दो टूक उत्तर क्यों नहीं दिया कि अल्पमत में होने के कारण वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है? सच्चाई यह है कि अन्य पार्टियों की तरह ‘आप’ ने भी चुनावों में जीत हासिल करने के लिए चुनाव अभियान चलाया था और जनता से कुछ वादे किए थे. जनता ने यदि किसी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया है तो इसका अर्थ यह भी है कि जनता अभी पूर्णत: आश्वस्त नहीं है. और समय की आवश्यकता है उसे.

जैसा स्थिति विकास हुआ है उसमें ‘आप’ का नेतृत्व भली भांति यह जानता है कि यदि उसे सरकार बनानी है तो कांग्रेस से उसकी पेशकश स्वीकार करने के अतिरिक्त उसके पास और कोई विकल्प नहीं है. भाजपा के साथ वह सरकार बनाने से मना कर चुकी है जो यदि संभव हो जाता तो संभवत: दिल्लीवासी उसका स्वागत करते क्योंकि इन चुनावों में उनकी पहली पसंद भाजपा रही है. लेकिन इसमें ‘आप’ का पूर्वाग्रह आड़े आया. श्री केजरीवाल ने कांग्रेस की पेशकश पर यह कहते हुए सवाल उठाया कि ‘बिना शर्त समर्थन’ से कांग्रेस का अभिप्राय: क्या है. आनन फानन में ‘आप’ ने अपनी शर्तों की सूची तैयार करके कांग्रेस के साथ भाजपा को भी भेज दी जबकि भाजपा ने स्थितियों को भांपते हुए उसे समर्थन देने या उससे समर्थन लेने में कोई रूचि नहीं दिखाई थी. फलत: भाजपा ने इसका कोई जवाब न देकर ठीक ही किया. कांग्रेस ने इन शर्तों को अधिकांशत: ‘प्रशासनिक महत्व’ की बताते हुए उन्हें बेहिचक पूर्णत: स्वीकार कर लिया. इस प्रकरण में न सिर्फ ‘आप’ की राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय मिला बल्कि वह अपने ही फैलाए जाल में स्वयं फंसती नज़र आई. असमंजस पनपा कि वह क्या करे, क्या न करे. ‘आप’ और कांग्रेस मिल कर भी सरकार बनाते हैं तो २८+८ = ३६ का आंकड़ा बनता है. ७० की विधानसभा में कब तक चलेगी ऎसी अल्पमत सरकार? क्या स्थिर प्रशासन मिलेगा दिल्ली के वासियों को? क्या पूरे कर पाएगी ऐसी सरकार ‘आप’ के द्वारा जनता को दिए गए वादों को? और क्या अब पराजित कांग्रेस ‘आप’ के इशारों पर एक कठपुतली की भूमिका अधिक समय तक निभाती रह सकेगी जैसा कि केजरीवाल सुनिश्चित करने की निरर्थक चेष्ठा में जुटे हैं?

अपने ही द्वारा बुने जा रहे ताने बाने में फंसते श्री केजरीवाल और उनके कुशल सहयोगियों को अपना मुंह बचाने के लिए जनता के पास जाने के सिवा और कोई सूझ नहीं आई. फिर तुरंत यह विस्मयकारक घोषणा कर दी कि “हम अल्पमत में होते हुए कांग्रेस के साथ सरकार बनाएं या न बनाएं इस पर जनता का फैसला लेने के लिए उसके पास जायेंगे”. गर्व के साथ यह जतलाया कि २५ लाख पत्र दिल्ली की जनता में बांटे जाने के लिए तैयार किए जा चुके हैं. साथ ही कम्प्यूटर के माध्यम से भी लोगों के मत लिए जाने लगे. निर्धारित समय रविवार २२ दिसम्बर तक जनता क्या फैसला देती है पता चल जाएगा. क्या ‘आप’ का नेतृत्व पहले कोई फैसला ले चुका है और जनता के पास जाने और पुन: लोकसंपर्क करने का उपक्रम किया जा रहा है? इसका भी खुलासा शीघ्र हो जाएगा. यह निश्चित ही स्थापित व्यवस्था से हट कर उठाया गया कदम है और ‘आप’ की आगामी रणनीति का संकेत भी है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि दिल्ली की जनता को अभी भी अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी होगी. शायद तब तक जब तक जनता किसी एक पार्टी के हाथ में लगाम संभाल देने की तत्परता नहीं दिखाती. जनता को असमंजस नहीं, उसकी समस्याओं के समाधान खोज कर वस्तुत: समाधान कर सकने वाली स्थिर सरकार चाहिए. कब गठित होगी और कैसे गठित होगी ऐसी सरकार? फैसला इस पर किए जाने की आवश्यकता है. त्रिशंकु विधानसभा यह कर पाने में असमर्थ है. भाजपा अपनी असमर्थता जता चुकी है क्योंकि बहुमत के पास होकर भी बहुमत से वह वंचित है. ‘आप’ ने सोचने के लिए उपराज्यपाल से दस दिन का समय माँगा जो उसे मिला भी लेकिन वह अभी भी निर्णय नहीं कर पा रही कि कांग्रेस के साथ हमजोली बने या न बने. अर्थात अपने भविष्यक भले बुरे की सोच में है. कांग्रेस जिसे जनता ने सिरे से ही नकार दिया है फिर से उबर पाने के लिए अपने झुके हुए आहत कंधे का सहारा ‘आप’ को देने के लिए स्वार्थवश उत्सुक है. ‘आप’ के लिए दीर्घावधि सौदा महंगा पड़ सकता है क्योंकि उसकी अल्पमत सरकार टेकड़ियों के सहारे अधिक समय के लिए नहीं टिकी रह सकती.

अब रहा ‘आप’ के नेता के द्वारा बार बार किया जाने वाला यह दावा कि वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए निकले हैं. पर यह स्पष्ट नहीं है कि कैसा होगा यह कथित व्यवस्था परिवर्तन. माना कि देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए बहुमुखी व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है लेकिन क्या ‘आप’ समेत किसी भी पार्टी ने अब तक इसके लिए कोई ठोस योजना प्रस्तुत की है? ऐसी कोई योजना जो प्रथमदृष्टया यह स्पष्ट करे कि परिवर्तन का उद्दिष्ट क्या है? क्या होंगे उससे अपेक्षित परिणाम जो जनहित की कसौटी पर पूरा उतर सकें? और क्या उन्हें इस ढंग से लागू किया जाएगा जो देश और समाज को उसके इस संत्रास से मुक्ति दिला सके. आज १८ दिसंबर, २०१३ को जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ उसी समय यह भी सुन रहा हूँ कि संसद ने सरकार के द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयक को पारित कर दिया है. अनशन पर बैठे अन्ना ने यह समाचार मिलते ही अपना अनशन समाप्त कर दिया. उनके समर्थकों ने इसे अन्ना की जीत बताते हुए जश्न मनाया. लोकसभा में कांग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी ने इस विधेयक को पारित करने के लिए सदन में दिए अपने भाषण में सभी पार्टियों के सहयोग के लिए अपील की थी. वे इसे उनकी अपनी जीत बताएंगे. भाजपा ने इसे पूर्ण समर्थन दिया इसलिए श्रेय के भागीदार वे भी माने जायेंगे.

अन्ना चिरप्रतीक्षित लोकपाल के पारित हो जाने से संतुष्ट हुए यह तो समझ में आता है, लेकिन कभी अन्ना का दाहिना हाथ रहे और राजनीतिक माध्यम से इसके लिए लड़ने के संकल्प के साथ ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन करने वाले अरविन्द केजरीवाल इस लोकपाल विधेयक के पारित हो जाने से असंतुष्ट हैं. दोनों के बीच की खाई का पाट बढ़ा है. व्यक्तित्वों का संघर्ष है यह या कुछ और लेकिन जनसामान्य की नजरें अब यह देखने की प्रतीक्षा में उठेंगी कि पारित लोकपाल विधेयक पर महामहिम राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बाद इसके कानून बन जाने पर तत्संबंधी प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने के लिए उसे कितना और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. भ्रष्टाचार से मुक्ति का मार्ग कब खुलेगा? यह तो आने वाला समय ही बताएगा. इस बीच जहाँ तक दिल्लीवासियों के अन्य हितसाधन के लिए एक सक्षम सरकार के गठन का सम्बन्ध है ‘आप’, आप और सिर्फ “आप” ही के फैसले का इंतज़ार है. मेरा यह मानना है कि फ़िलहाल दिल्ली में राष्ट्रपति शासन और नए चुनावों के आयोजन के अतिरिक्त और कोई युक्तियुक्त विकल्प नहीं है. महंगा या सस्ता जैसा भी होगा लेकिन अंतिम निर्णय तो दिल्लीवासियों के ही करने का है.

5 COMMENTS

  1. मान्यवर श्री आर सिंह जी
    मेरे लेख के मर्म तक पहुंच कर अपनी सटीक टिप्पणी देने के लिए आपका आभारी हूँ.
    आपने उन सब कारणों का विषद विश्लेषण किया है जिनसे ‘आप’ ने चुनावों में एक बार जनमत प्राप्त हो जो जाने के बाद भी पुन: जनता के पास जाने का निश्चय किया. मैं नहीं समझता कि भाजपा को कांग्रेस कभी भी सरकार बनाने के लिए समर्थन प्रदान कर सकती है. इसलिए दिल्ली में ऐसा होने की कोई संभावना नहीं थी. जिन कारणों से और जिस उद्देश्य से कांग्रेस ने ‘आप’ को बिनाशर्त समर्थन देने की फुर्ती दिखाई वे भी धीरे धीरे शांत होती दिखाई देने लगी है. जैसा कि मैंने अपने लेख में शंका व्यक्त की थी कि यदि कांग्रेस के समर्थन से ‘आप’ की सरकार बन जाती है तो अधिक देर तक यह असहज गठजोड़ नहीं बना रहेगा. अभी तो सरकार बनी भी नहीं है और जैसा कि आपके ध्यान में आया ही होगा कांग्रेस के प्रवक्ता पहले से कदाचित भिन्न बोली बोलने लगे हैं.
    जहाँ तक अन्य देशों में जनमतसंग्रह का प्रश्न है अधिकाँश लोकतंत्रीय देशों के संविधान चुनावों के अतिरिक्त किन्हीं विशिष्ट महत्व के मुद्दों पर इसकी अनुमति देते हैं. पिछले दिनों ब्रिटेन की सरकार ने इस एक मुद्दे पर जनमत संग्रह करने का वादा जनता से किया है कि ‘ब्रिटेन यूरोपीय समुदाय का सदस्य बना रहे या नहीं’. यह राष्ट्रीय महत्व का एक विशेष मुद्दा है जिसका फैसला मात्र संसद में ही न करके इस माध्यम से करने का निर्णय देश के लिए अधिक हितकर माना गया. लेकिन जिस प्रकार दिल्ली में चुनाव होने के जल्द बाद ही एक अल्पमत प्राप्त पार्टी ने आधे अधूरे जनमत संग्रह का आयोजन अपनी सरकार के गठन के मामले पर किया है आज तक ऐसा मेरे ध्यान में तो कहीं नहीं आया है.
    ‘आप’ का नेतृत्व अवसर मिलते ही अल्पमत की सरकार बनाने के लिए उतावला है ताकि राष्ट्रीय मंच पर उतरने की अपनी तैयारी पर शीघ्र ध्यान दे सके. लेकिन उसे ध्यान में रखना होगा कि इतनी जल्दबाजी में ऐसा न हो कि जिस आम आदमी की अनेक समस्याओं के निदान प्रस्तुत करने के बड़े बड़े वादे उसने बिना किसी तैयारी के कर रखे हैं कहीं अधर में लटकते न नज़र आएं. राष्ट्रीय विकल्प बनते बनते वह कहीं दिल्ली में ही सिकुड़ सिमट कर न रह जाए.
    देश को आज बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में निश्चय ही एक मज़बूत सत्ता विकल्प की आवश्यकता है और इसके लिए उसका संयत, सकारात्मक और ज़िम्मेदार होना नितांत आवश्यक है.

    • भारतीय जी,आज भारतीय राजनीति में अवश्य कुछ ऐसा हो रहा है , जैसा पहले यहाँ कभी नहीं हुआ था और हो सकता है कि इस तरह के विशेष मुद्दे पर कहीं नहीं हुआ हो.यह भी सत्य है कि कुछ राष्ट्रों में इसका प्रावधान उनके संविधान में भी है. आम आदमी पार्टी जो भी कर रही है उसका प्रेसीडेंस शायद न रहा हो,पर क्या यह आवश्यक है कि हमेशा वही काम किया जाए,जो पहले हो चूका हो?क्या क़ानून के दायरे में रह कर कुछ नया नहीं किया जासकता?
      मेरे विचार से इस तरह के सहयोग में जहां एक पार्टी की विचार धारा एक दम साफ होकोई हानि नहीं है. आम आदमी पार्टी अपने अपने कार्य क्रमों पर उसी तरह अमल करती रहे,जैसा वह पूर्ण बहुमत में होने पर करती,तो उसे इस सहयोग से किसी हानि की सम्भावना नहीं है.आम आदमी पार्टी ने यह अधकचरा निर्णय नहीं लिया है. आम आदमी पार्टी के लिए दोनों पार्टियां यह कहने लगी थी कि आम आदमी पार्टी ने जो वायदे किये हैं उनको पूरा करना सम्भव ही नहीं है. उस हालत में अगर वह इस बिना शर्त सहयोग को अस्वीकार करती,तो जनता में यही सन्देश जाता कि आम आदमी पार्टी जिम्मेदारी से भाग गयी. उससे या ज्यादा अच्छा है कि वह अपने वादों को पूरा करने में लग जाये,अगर कांग्रेस इसमे अड़चन डालती है तो उसके असली चहरे को सामने लाने में मदद मिलेगी अन्यथा पार्टी अपना काम करती रहेगी.

      • बार बार यह दोहराते कि ‘न भाजपा से गठबंधन करेंगे न कांग्रेस से’ ‘आप ‘ के नेतृत्व ने उसी कांग्रेस के सहारे सरकार बनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई जिसे दिनरात वे कोसते चले आये थे. पहले ही कदम पर उनकी कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट हो रहा है. इसलिए, समय ही बताएगा कि आम आदमी पार्टी ने जो वादे जनता को दे रखे हैं किस हद तक उसी के द्वारा निर्धारित समयसीमा में पूरे किए जाते हैं.

        आपने प्रश्न उठाया है कि ” क्या यह आवश्यक है कि हमेशा वही काम किया जाए,जो पहले हो चूका हो? क्या क़ानून के दायरे में रह कर कुछ नया नहीं किया जासकता?” क्यों नहीं, लेकिन नए प्रयोग सफल सिद्ध होने पर ही मान्य होते हैं उससे पूर्व नहीं. श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ साधन का अपनाया जाना ही उसकी विश्वसनीयता का आधार बनता है. ‘आम आदमी पार्टी इसका अपवाद नहीं हो सकती.

  2. भारतीय जी, आपने दो तीन मुद्दे एक साथ उठाये है. पहला तो बीजेपी द्वारा इंकार का मुद्दा.अगर कांग्रेस बीजेपी का साथ देने को तैयार हो जाती,तो क्या बीजेपी इसे सहर्ष स्वीकार नहीं करती? दूसरा मुद्दा कांग्रेस द्वारा आम आदमी पार्टी को समर्था दिए जाने का और सबसे महत्त्व पूर्ण मुद्दा जनमत संग्रह का. अगर आम आदमी पार्टी बीजेपी की जगह होती,तो शायद अल्पमत सरकार बना कर अपने वायदे के अनुसार सरकार चलाना शुरू कर देती.उस हालत में या तो उनकी सरकार सुचारू रूप में चलती या उनकी सरकार को गिराने में बीजेपी और कांग्रेस को साथ होना पड़ता,पर ऐसा नहीं हुआ.जब आम आदमी पार्टी को बीजेपी के बाद सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया तो कांग्रेस ने आव देखा न ताव तुरत समर्थन का पत्र भेज दिया. उसने एक तीर से दो या तीन शिकार करने चाहे .एक तो उसे मालूम था कि अगर तुरत चुनाव हुआ,तो बीजेपी या आम आदमी पार्टी में किसी का पलड़ा भारी हो सकता है और हो सकता है कि बीजेपी को सरकार बनाने का मौका मिल जाए.अतः पहले इसको रोकना जरूरी था. बीजेपी को लगा कि आम आदमी पार्टी तो इसे स्वीकार करेगी नहीं और हम उसे जिम्मेदारी से भागने वाला करार कर देंगे..इससे दोनों पार्टियों का मतलब साधता था. कांगरस को पता चल ही गया था कि आम आदमी पार्टी उसका विकल्प बन कर उभर रही है,क्योंकि उसने कांग्रेस के वोट बैंक पर कब्ज़ा ज़माना शरू कर दिया था,अतः वह आम आदमी पार्टी का साथ देकर अपने उस वोट बैंक को बचाने के साथ यह भी सन्देश देना चाहती थी कि ‘आप’ उनका भला नहीं कर सकती,नहीं तो हमारा प्रस्ताव अवश्य स्वीकार करती,स्वीकार किये जाने केबाद(हांलाकि इसकी सम्भावना कम थी) वे अपने किये हुए वादों के जाल में फंस जायेंगे,क्योंकि उनके अनुसार ‘आप’ ये वादे पूरा कर ही नहीं सकती थी
    सबसे बड़ी बात सामने आती है जनमत संग्रह की. अगर ‘आप ‘ को स्पष्ट बहुमत मिला होता,तो वह यह जनमत संग्रह नहीं करती,यह तो आपभी समझ रहे होंगे.यहाँ तो प्रश्न है,उसको साथ में लेने का,जिसके साथ खुली लड़ाई की घोषणा थी. आम आदमी पार्टी तो जानता के लिए यह लड़ाई लड़ रही थी,तो इस असमंजस की घडी में उसी जनता से क्यों न पूछ लिया जाए कि उसकी क्या मंसा है. जनता की राय जानने का यह तरीका भारत के लिए नया है.हो सकता है कि इंग्लैण्ड के लिए भी नया हो,पर अन्य देशों में तो ऐसा होता है. अमेरिका में भी नगर सम्बन्धी बहुत से फैसले आम जनता की सभाओं के जरिये लिया जाता है.
    असल अग्नि परीक्षा तो अब शुरू होती है.सरकार बनाने के बाद अपने वादों को पूरा करने का..इसी वादा पूर्ती पर न केवल आम आदमी पार्टी का बल्कि देश का भविष्य टिका हुआ है.अगर आम आदमी पार्टी इस परीक्षा में खरी उतरती है,तो भविष्य में भारत में दो राष्ट्रिय पार्टी सामने आ जायेगी. बीजेपी और आम आदमी पार्टी . कांग्रेस धीरे धीरे समाप्त हो जायेगी.

    • लेख पर आपकी टिप्पणी के लिए आभारी हूँ जिसमें आपने मेरे विषय विश्लेषण के मर्म तक पहुंच कर अपना सुयोग्य मत दिया है.

      यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि “परिवर्तन’ लाने के दावे करते हुए देश की राजनीति में छा जाने की घोषणा करने वाली नवोदित पार्टी ‘आप’ की दिल्ली में वर्तमान राजनीतिक पैंतरेबाजी उसकी पूर्वघोषित दिशा दृष्टि के एकदम विपरीत जाती दिख रही है. आधे अधूरे कथित जनमतसंग्रह की आड़ में, उस कांग्रेस के साथ हाथ मिला कर सत्ता की कमज़ोर डोर थामने की ‘आप’ के नेतृत्व की कोशिश दीर्घावधि में ‘आप’ की ही जन विश्वसनीयता के लिए घातक सिद्ध होगी, जिस कांग्रेस के विरुद्ध बड़े बड़े आरोपों के बल पर वह जनता का समर्थन जीत कर राजनीति में आगे बढी है.

      अधिकाँश लोकतंत्रवादी देशों में, अपने अपने पूर्व स्वीकृत संवैधानिक प्रावधानों के तहत, किन्हीं विशिष्ट मुद्दों पर ही जनमत संग्रह कराने की व्यवस्था रहती है जिनका समाधान जनप्रतिनिधि संसद सर्वसम्मति से नहीं कर पाते. उदाहरणार्थ, ब्रिटेन में सरकार ने हाल ही में संकेत दिया है कि ‘ ब्रिटेन यूरोपीय समुदाय’ का सदस्य बना रहे या न रहे’ इस पर जनमतसंग्रह कराएगी क्योंकि सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति है कि यह मुद्दा देश के भविष्य से जुड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा है.

      लेकिन, जैसा कि दिल्ली में हुआ है चुनाव के माध्यम से एक बार जनमत मिल जाने के बाद सरकार गठन के मामले पर किसी एक पार्टी के द्वारा इस प्रकार जनमतसंग्रह का नाटक आज तक पहले कभी भी अन्यत्र अनुभव में नहीं आया.

      आपका यह कहना सही है कि “असल अग्नि परीक्षा तो अब शुरू होती है.सरकार बनाने के बाद अपने वादों को पूरा करने का..इसी वादा पूर्ती पर न केवल आम आदमी पार्टी का बल्कि देश का भविष्य टिका हुआ है. अगर आम आदमी पार्टी इस परीक्षा में खरी उतरती है,तो भविष्य में भारत में दो राष्ट्रिय पार्टी सामने आ जायेगी. बीजेपी और आम आदमी पार्टी…………..” हमें अगले कुछ दिनों में ही स्पष्ट संकेत मिलना शुरू हो जायेंगे कि ऊंट किस करवट बैठता है.

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