देश की आंख में धूल झोंकने की राजनीति

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-अरविंद जयतिलक- Arvind kejrival
विफलताओं के बोझ से दबे अरविंद केजरीवाल का जनलोकपाल बिल की आड़ में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा किसी नायक की युगांतकारी पहल नहीं बल्कि एक घुटनाटेक असफल मुख्यमंत्री की दगाबाजी का सच है जिसने दिल्ली का ही नहीं देश का भी विष्वास खोया है। केजरीवाल जैसा भी तर्क दें, पर देश अच्छी तरह समझ रहा है कि उनका इस्तीफा दिल्ली और देश की जनता के हित में नहीं बल्कि वायदों की कसौटी पर खरा न उतरने, जनता में घटती साख, मंत्रियों के लंपट आचरण और आमचुनाव के प्रति लोभ का नतीजा है। वह महान त्याग नहीं जिसे वह और उनकी पार्टी जरुरत से ज्यादा देशभक्त बन कुप्रचारित कर रही है। देश जानना चाहता है कि एक गैर संवैधानिक जनलोकपाल बिल को पारित कराने की जिद में सरकार की कुर्बानी देना आखिर किस तरह संविधान और जनता के हितों का सम्मान है? और यह भी कि इसे विधानसभा में पेश होने से रोकना कैसे संविधान और जनता के हितों का अपमान है? अगर एक जिम्मेदार राजनीतिक दल होने के नाते भाजपा और कांग्रेस ने इसे विधानसभा में पेश होने से रोककर संविधान को लहूलुहान होने से बचाया है तो यह गलत कैसे है? और किस तरह जनता के हितों के विरुद्ध है? यह कैसे उचित होता कि दोनों दल आंख बंदकर केजरीवाल सरकार की गैर संवैधानिक विधेयक को विधानसभा में पेश और पारित होने देते? क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं होता? क्या यह लोकतंत्र और जनता के हितों के विरुद्ध नहीं होता? यह सही है कि देश में भ्रष्टाचार चरम पर है और उसका खात्मा जरुरी है। संभव है कि केजरीवाल सरकार का जनलोकपाल बिल इस दिषा में सहायक सिद्ध होता। लेकिन क्या यह उचित नहीं था कि इस विधेयक को संवैधानिक दायरे में लाकर विधानसभा में पेष किया जाता? केजरीवाल ने इस्तीफा के बजाए आमसहमति क्यों नहीं बनाया? माना कि उनका कांग्रेस-भाजपा और केंद्र सरकार पर यकीन नहीं था। लेकिन वे अदालत की भी तो षरण ले सकते थे? अगर वे इसमें भी अपना अपमान समझ रहे थे तो क्यों नहीं दिल्ली की जनता से रायषुमारी की? उन्हें दिल्ली की जनता से पूछना चाहिए था कि इस मसले पर उन्हें इस्तीफा देना चाहिए या नहीं। लेकिन उन्होंने इसकी जरुरत नहीं समझी। आखिर क्यों? क्या यह दिल्ली की जनता के साथ छल नहीं है? लेकिन विडंबना है कि केजरीवाल और उनकी पार्टी अपनी छलबाजी पर षर्मिंदा होने के बजाए उल्टे कांग्रेस और भाजपा को कठघरे में खड़ा कर रही है। प्रचारित कर रही है कि भ्रष्टाचार के मसले पर इनकी नीयत साफ नहीं है। वे भ्रश्टाचारियों के साथ हैं। यह भी इल्जाम गढ़ रहे हैं कि देश के जाने-माने उद्योगपति मुकेष अंबानी के कहने पर इन दोनों दलों ने जनलोकपाल विधेयक पर साथ नहीं दिया। यह देश को गुमराह करने वाला बयान है। अगर भाजपा और कांग्रेस उनके गैर संवैधानिक विधेयक को पारित भी करा देते तब भी यह संवैधानिक ही होता? कभी कानून नहीं बनता। हां, संविधान की मर्यादा जरुर लूट जाती? क्या केजरीवाल ऐसा ही चाहते थे? याद रखना होगा कि कांग्रेस ने उन्हें सरकार बनाने के लिए बिना षर्त समर्थन दिया। केजरीवाल सरकार को दिल्ली की जनता के हित में इस समर्थन का भरपूर उपयोग करना चाहिए था। उसने कुछ अच्छे कार्य भी किए और इसकी सराहना भी हुई। मसलन दिल्ली की जनता को 666 लीटर प्रतिदिन मुफ्त पानी और 400 यूनिट तक बिजली खर्च पर बिल में 50 फीसद कटौती का एलान किया। वीआइपी कल्चर खत्म करने और बिजली कंपनियों की ऑडिट कराने का बीड़ा उठाया। एंटी करप्षन हेल्पलाइन जारी की। कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगा। उचित होता कि वह जनलोकपाल विधेयक पर रार के बजाए अन्य मुद्दों पर ईमानदारी से कार्य करती। वह केंद्र सरकार से तालमेल बिठा दिल्ली में नई अदालतें खोलने, दिल्ली को भारतीय संघ के अन्य राज्यों के समान दर्जा देने, पानी की आपूर्ति के लिए पाइप लाइन बिछाने, झुग्गी-झोपडि़यों को पक्के मकान में तब्दील करने, अनाधिकृत कालोनियों को नियमित करने की दिशा में आगे बढ़ सकती थी। केंद्र सरकार ने सहयोग का वादा भी किया था। लेकिन आष्चर्य कि केजरीवाल ने जनलोकपाल के मसले पर अपनी सरकार की इतिश्री कर दी। मतलब साफ है कि वह दिल्ली से पिंड छुड़ाने की कोशिश में थे और जनलोकपाल इसका कारण बना। लेकिन सवाल अभी भी मौजू है कि उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया? क्या वह आमचुनाव सिर पर था इसलिए? या यह माना जाए कि चुनाव पूर्व किए गए वायदे को पूरा करना उनके वश की बात नहीं रह गयी थी? कारण जो भी हो। पर केजरीवाल के इस्तीफे से न केवल दिल्ली बल्कि संपूर्ण देश में गलत संदेश गया है। वह सरकार की कुर्बानी को शहादत में बदलकर अपने राजनीतिक मकसद को हासिल करने में कामयाब होगी इसमें संदेह है। दो महीने के षासन में सरकार के मंत्रियों और विधायकों के नकारात्मक कारगुजारियों से केजरीवाल सरकार की खूब भद्दी पिटी है। खिड़की एक्सटेंशन मामले में जिस तरह कानून मंत्री सोमनाथ भारतीय और उनके समर्थक युगांडाई महिलाओं के साथ अभद्रता की और पुलिस से जा भिड़े वह सवाल अभी भी मौंजू है। इस घटना से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धुमिल ही नहीं हुई बल्कि दावोस में अफ्रीकन यूनियन के प्रतिनिधियों ने इस मसले को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में उठाने की चेतावनी भी दी। लेकिन आश्चर्य कि इन सबके बावजूद भी कानून मंत्री सोमनाथ विचलित नहीं है और अरविंद केजरीवाल कुतर्कों से उनका बचाव कर रहे हैं। कानून मंत्री ही नहीं स्वयं मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल ने भी मर्यादा की सीमाओं का उलंघन किया। दिल्ली पुलिस के अफसरों पर कार्रवाई को लेकर रेलभवन पर धरना दिया। वहां धारा 144 लागू था। इससे नाराज देश के सर्वोच्च अदालत को कहना पड़ा कि संवैधानिक पद पर रहते हुए संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ कोई संविधान के तहत सड़क पर आंदोलन कैसे कर सकता है। आम चुनाव में यह मसला उठेगा और केजरीवाल को जवाब देना होगा। इसके अलावा केजरीवाल और उनकी पार्टी को समान नागरिक संहिता, जम्मू-कश्मीर में धारा 370, कश्मीरी पंडितों का विस्थापन, बांग्लादेशी घुसपैठ, रामजन्मभूमि विवाद, नक्सलवाद, एनसीटीसी सहित अनगिनत सवालों पर भी जवाब देगा। दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कश्मीर और नक्सलवाद के मसले पर उनकी पार्टी में एक राय नहीं है। पिछले दिनों प्रषांत भूषण ने कश्मीर मसले पर विवादास्पद बयान देकर पार्टी की खूब किरकिरी करायी। केजरीवाल की पार्टी को आगे बढ़कर उनका बचाव करना पड़ा। इन सवालों के अलावा आम आदमी पार्टी को आर्थिक नीतियों के बारे में भी अपनी राय स्पष्ट करनी होगी। मसलन एफडीआइ, विदेशी निवेश, बीमा, टैक्स, किसानों और गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी, शिक्षा, केंद्र-राज्य संबंध, भूमि अधिग्रहण, जनसंख्या वृद्धि, नदी जल विवाद, गंगा पर बनने वाली विद्युत परियोजनाएं, पेट्रों उत्पादों की कीमतों पर स्पष्ट राय रखना होगा। फिलहाल पार्टी इन सवालों पर गोलमोल जवाब दे रही है। लेकिन अब उसे जनता को छलना और उनकी भावनाओं से खेलना आसान नहीं होगा। देश छल की राजनीति से ऊब चुका है।

3 COMMENTS

  1. मुझे आज तक ये पता नहीं चला कि केजरी बेवकूफ है या उसका समर्थन करने वाले !!!!!!

    क्या केजरी को संसदीय प्रणाली काज्ञान नहीं था ?
    क्या केजरी को देश के राजनितिक डालो का ज्ञान नहीं था ?
    क्या केजरी को वो मालूम नहीं था जो उनके समर्थक उसके बचाव में केह रहे है ?
    क्या उसकी पढाई और नोकरी में रूल्स और रेगुलेशन नहीं थे ?
    क्या उसकी निजी जिंदगी में भी कोई पध्धति नहीं थी ?
    सब कुछ मालूम होते हुवे भी आत्महत्या करना इससे बड़ा गुनाह कोई नहीं है !!!!

    ये पूरी तरह से सत्ता लालसा थी और इसे सबको काबुल करना चाहिए और अब नए सिरे से सोचना चाहिए ???

  2. इतने कम समय में केजरीवाल ने जितना काम किया वो भी बड़ी पार्टियों की रोक-टोक के साथ किसी सरकार ने नहीं किया है उढाये गए सभी बिंदुओं का केजरीवाल ने प्रेस के सामने समुचित उत्तर भी दिया है इतना ही नहीं आज आप पार्टी के कारण ही बड़ी पार्टियां अपने में बदलाव लेन व् “कुछ” सीखने को मजबूर हुई हैं और उनके नेताओं ने इसे माना भी है.

    उनकी इससे बड़ी जीत और क्या होगी आज दोनों बड़ी पार्टियां उनसे घबरायी हुई हाँ व् उनके विरूद्ध अनर्गल प्रचार व् बयानबाजी में व्यस्त हैं
    आज केजरीवाल व् उनके जैसी राजनीती की ही जरूरत है..

  3. लेकिन आम जनता इस बात को नहीं समझती कि सरकारी कार्यों की एक निश्चित पद्धति होती है. विशेषकर केजरीवाल का समर्थन करने वाला वर्ग, जिसकी रोजमर्राह की समस्याओं को उन्होंने उठाया.यह वह वर्ग है जो अच्छे लुभावने वादे करने वालों के फेर में आ जाता है.किसी भी शासन में इस वर्ग की संख्या सबसे ज्यादा होती है, जो वोट ऐसे आधारों पर, या दूसरों कि देखा देखी में या कहने पर मतदान करते हैं.इसलिए जनता से कितना भूत सर से उतरता है ,इसका इंतजार करना ही होगा.केजरीवाल की अपनी प्रशासनिक क्षमताएं क्या हैं यह तो देख लिया, अब जो भी प्रबुद्ध वर्ग के लोग उनके साथ जुड़ रहें हैं उनका क्या आधार है यह भी चुनाव में ही पता चलेगा. वैसे भी भारतीय राजनीती आज इन लोगों का नहीं जुगाड़ू व अपराधियों का घर बनी हुई है.अगर इन लोगों का बोलबाला नहीं होता तो क्या मनमोहन सिंह जैसे लोग चुनाव न लड़ लेते.

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