दो बच्चों की नीति पर भी देश में शुरू हो गयी राजनीति

दीपक कुमार त्यागी

देश में दो बच्चों की नीति लागू करने के संदर्भ में बहुत लंबे समय से विचार चल रहा है। देश के नीतिनिर्माता इसके लाभ व हानि को दृष्टिगत रखकर इस पर विचार करने का कार्य कर रहे है, लेकिन हमारे देश के बेहद उथलपुथल भरे अनिश्चितता पूर्ण राजनीतिक हालातों को देखकर अभी यह कहना जल्दबाजी होगी की देश में दो बच्चों का कानून कब आ पायेगा। लेकिन जब से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि आरएसएस की आगामी योजना देश में दो बच्चों का क़ानून लागू करवाना है, तब से देश के आमजनमानस व राजनीतिक दलों में एकबार फिर से दो बच्चों के कानून पर तेजी से बहस व जमकर राजनीति भी शुरू हो गयी है। आज हमारी सबसे बड़ी दुविधा यह है कि चंद लोगों व नेताओं की कृपा से हमारे देश में हर मुद्दे पर इतनी ज्यादा राजनीति होने लगी है कि आम आदमी के समझ में ही नहीं आता है कि उसके लिए क्या सही व क्या गलत है। देश में राजनीति की अति के चलते ऐसे हालात हो गये है कि जब तक हर बात का आम जनता के बीच में बतंगड़ ना बन जाये तब तक देश के कुछ राजनेताओं को तो चैन की नींद तक भी नहीं आ पाती है।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने की मांग क्या कर डाली, तभी से इस ज्वंलत मसले पर देश के कुछ राजनेताओं ने पक्ष व विपक्ष में श्रेय लेने के लिए अपनी राजनीति चमकाने के लिए बिसात बिछानी शुरू कर दी हैं। कोई भी यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि यह राजनीति का  मसला नहीं बल्कि देश की अधिकांश समस्याओं की जननी बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करने का एक ठोस समाधान है व अधिकांश समस्याओं का निदान है। आज 133 अरब जनसंख्या वाले हमारे देश में आबादी के इस जबरदस्त विस्फोट पर लगाम लगाना समय की मांग है और यह देश व समाज के हित में अब बहुत जरूरी हो गया है। क्योंकि अब अगर और देर कर दी गयी,  तो इस घातक बीमारी का कोई इलाज किसी भी नीतिनिर्माता व विशेषज्ञ के पास नहीं बचेगा। देश में जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार चलती रही तो हम लोग अपनी आने वाली पीढियों को सुविधाओं व संसाधनों से वंचित करके हर चीज की लंबी लाईन में लगने के लिए मजबूर करके एक दिन इस दुनिया से रुखसत हो जायेंगे। इस नीति का विरोध करने वाले राजनीतिक दल व लोग आरोप लगाते हैं कि देश में दो बच्चों की नीति को बाध्यकारी बनाए जाने की संघ प्रमुख और कुछ अन्य लोगों की मांग के पीछे छिपे हुए राजनीतिक कारण हैं। वहीं विरोधी पक्ष भी तरह-तरह के तर्क देकर बताते हैं कि यह कानून देश के मुसलमान और ग़रीब विरोधी है। इस तरह की बात करके आम लोगों को बरगलाने के चक्कर में ये चंद लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि भाई इस कानून से लाभ होगा तो सबको और नुकसान होगा तो सबको होगा, इसमें हिन्दू-मुसलमान या अमीर-गरीब की बात कहां से बीच में आ गयी।  वहीं इस कानून के पक्षधर लोग व राजनीतिक दल देश की जनता को उसके अनगिनत लाभ गिनाते हुए नहीं थकते हैं, लेकिन उनमें से ही चंद लोग अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए धर्म व समुदाय को टारगेट करके उनको एक अच्छे कानून के प्रति भयभीत करने का काम भी करते नज़र आते हैं, जो सरासर गलत है। देश में अन्य मुद्दों की तरह ही दो बच्चों के कानून के पक्षधर व विरोधियों के बीच राजनीति तेजी से शुरू हो गयी है, भविष्य के गर्भ में छिपे इस कानून पर भी दोनों पक्षों के चंद लोग श्रेय लेने की अंधी दौड़ में शामिल हो गये हैं, जो हमारे देश में चंद राजनेताओं की कृपा से लगातार जारी रहेगी।
वैसे हमारे देश में बच्चों के पैदा होने की दर को आकडों के रूप में देखें तो देश में वर्ष 1950 में देश की महिलाओं की औसतन प्रजनन दर छह के आसपास थी, यानी कि देश की एक महिला अपने जीवनकाल में औसतन छह बच्चों को जन्म देती थी जो बहुत अधिक थी। लेकिन हाल के वर्षों में देखें तो देश में अब औसतन प्रजनन दर 2.2 प्रति महिला हो गई है, इसका मतलब यह है कि देशवासी इस ज्वंलत समस्या के प्रति काफी जागरूक तो हुए हैं। लेकिन विचारणीय यह है कि हमारे देश में प्रजनन दर अब भी 2.1 के एवरेज रिप्लेसमेंट रेट (औसत प्रतिस्थापन दर) तक नहीं पहुंच पायी है। औसत प्रतिस्थापन दर (एवरेज रिप्लेसमेंट रेट) प्रजनन क्षमता का वो स्तर है जिस पर एक आबादी खुद को पूरी तरह से एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में बदल देती है। लेकिन यह भी तय है कि चंद लोगों के विरोध व बरगलाने के बाद भी अब देश में धीरे-धीरे स्थिति रिप्लेसमेंट लेवल पर जल्द ही पहुंचने वाली है। परंतु समस्या यह है कि अभी भी देश के कुछ राज्यों में ऐसा नहीं हो पा रहा है। जो देश की आने वाली पीढियों के शानदार उज्जवल भविष्य के लिए ठीक नहीं है। संतोष की बात यह है कि पश्चिम भारत व दक्षिण भारत में ये हर जगह हो गया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके उलट हिंदी भाषी क्षेत्र उत्तर भारत और पूर्वी भारत के क्षेत्र में महिलाओं की औसतन प्रजनन दर अब भी तीन है और कुछ जगह तो यह चार तक बनी हुई है। जिसमें सबसे अधिक योगदान बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा आदि जैसे राज्यों का है। इसका सबसे बड़ा नकारात्मक प्रभाव यह है कि संसाधनों के अभाव में जनसंख्या के बढ़ते दवाब की वजह से इन राज्यों की बहुत सारी जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने के लिए मजबूर है। सोचने वाली बात यह है कि अपने परिवारों का लालनपालन करने के उद्देश्य से रोजगार की तलाश में सबसे अधिक पलायन भी इन राज्यों में ही होता है। क्योंकि यह एक नेचुरल प्रक्रिया है कि जब देश के किसी एक भू-भाग में विकास कम होगा, गरीब अधिक होगी और प्रजनन दर के चलते जनसंख्या अधिक होगी, तो वहां के लोग परिवार पालने के लिए अपने परिवार से दूर होकर प्रवासी बनकर देश के दूसरे राज्यों में रोज़गार खोजने के लिए जायेंगे ही। लेकिन मौजूदा समय में जब देश में रोजीरोटी रोजगार पर मंदी की जबरदस्त मार है, तो उस समय जब प्रवासी लोगों की वजह से किसी राज्य के संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है और वहां के मूलनिवासियों को यह लगने लगता है कि तुम इन प्रवासियों की वजह से बेरोजगार हो, तो उस स्थिति में एक बेवजह का समाज में संघर्ष उत्पन्न होता है। यह भी कटु सत्य है कि हमारे देश में अभी भी ऐसी मानसिकता है कि जो लोग दूसरी जगह प्रवासी बनकर काम ढूंढते हैं, उनकी स्थिति कुछ लोगों को छोड़कर अपने घर या गृहराज्य से कभी भी बेहतर नहीं हो पाती है। इस सब स्थिति के लिए हमारी बढ़ती जनसंख्या जिम्मेदार है।
आज हम सभी को सोचना होगा कि परिवार की अच्छी सेहत व बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए हर हाल में बच्चों की संख्या को जाति-धर्म से ऊपर उठाकर नियंत्रित करना होगा। तब ही देश में उपलब्ध संसाधनों, रोजगार के अवसरों, तरक्की के विकल्पों और सरकार की सेवाओं का हम व हमारे बच्चे सही ढंग से लाभ ले सकते हैं या उपयोग कर सकते हैं। क्योंकि आज के व्यवसायिक दौर में परिवार को भावनात्मक लगाव के साथ-साथ आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए की संसाधनों से परिपूर्ण होकर आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना बेहद जरूरी है, जिस लक्ष्य को छोटे परिवार के रहते आसानी से हासिल किया जा सकता है। इसलिए दो बच्चों के कानून के मसले पर अपने दिल व परिवार के हित की सुने व देशहित में उस पर अमल करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here