जनसंख्या रजिस्टर में बंग्लादेशी घुसपैठ – गम्भीर खतरे को आमन्त्रण

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– विनोद बंसल

एक अप्रैल से प्रारम्भ हुई भारतीय जनगणना विश्व के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगी। केन्द्रीय गृहमंत्री श्री पी. चिदम्बरम के अनुसार जनगणना कर प्रत्येक नागरिक को पहचान पत्र दिया जाने का काम इतने व्यापक पैमाने पर विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुआ। वास्तव में, भरी जा रही जानकारी यदि पूरी तरह सही हो तो भारत के विकास की गति कई गुना बढ़ सकती है। किन्तु यदि इसी रजिस्टर में तथ्यों को छुपाकर झूठी और भ्रामक जानकारी भर दी जाये तो यही रजिस्टर एक राष्ट्रीय शर्म बनकर देश की सुरक्षा के लिए घातक भी हो सकता है। प्रत्येक देश को उसके अन्दर रहने वाले नागरिकों की विस्तृत जानकारी अवश्य एकत्रित करनी चाहिए जिससे देशवासियों का चहुमुखी विकास सम्भव हो सके।

कहने को तो 1971 में ही पूर्वी पाकिस्तान पर भारत की विजय के बाद उसे बंग्लादेश का नाम दे दिया गया किन्तु देश में बंग्लादेशी लोग अनवरत रूप से भारत में घुसपैठ करते रहे, जो अभी तक जारी है। पूर्वोत्तार के राज्य व पश्चिमी बंगाल में बढ़ी हुई इनकी आबादी गम्भीर खतरों को आमंत्रण दे रही है। वर्ष 2003 में स्वयं केन्द्रीय सरकार ने माना था कि देश में दो करोड़ से अधिक बंग्लादेशी अवैध तरीके से रह रहे हैं। यह संख्या आस्टे्रलिया और श्रीलंका की कुल जनसंख्या के बराबर है। भारत में रह रहे अवैध बंग्लादेशियों की संख्या विश्व के 167 देशों की जनसंख्या से भी अधिक है। लगभग सौ देश ऐसे हैं जिनकी कुल जनसंख्या भारत के इन दुश्मनों की संख्या से कम ही बैठेगी। इन घुसपैठियोंं के कारण पूर्वोत्तार के राज्य आसाम, पश्चिम बंगाल, बिहार, मिजोरम, नागालैण्ड, मणिपुर, यहां तक कि दिल्ली और मुम्बई तक की जनसंख्या में व्यापक असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है। इनके अधिकांश जिले मुस्लिम बाहुल्य होकर गत दो दशकों में ही विस्फोटक स्थिति में पहुंच गये हैं क्योंकि, विश्व व्यापी आतंकवाद की जडें आजकल बंग्लादेश में ही फल-फूल रही हैं।

यदि इस समस्या के समाधान हेतु अब तक किये गये प्रयासों की वानगी देखें तो पता चलता है कि विभिन्न सरकारों ने इसे अपने वोट बैंक के रूप में ही प्रयोग किया है। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा बनाये गये इल्लीगल माइग्रेंट्स (डिटेक्शन ऑफ ट्राईब्यूनल) अधिनियम 1983 को भारतीय उच्चतम न्यायालय ने 22 वर्ष के पश्चात सन् 2005 में यह कहकर निरस्त कर दिया कि इससे घुसपैठ रूकने के बजाये इसे प्रोत्साहन ही मिला है। इस कार्य में सरकारों द्वारा किये गये खर्च को देखें तो पायेंगे कि अकेले आसाम ने 9149 बंग्लादेशियों को ढूंढ़ने में 170 करोड़ रूपये लगा दिये तथा जनवरी 2001 से सितम्बर 2006 तक मात्र 1864 बंग्लादेशियों को ही भार की सीमा के पार खदेड़ा जा सका। अर्थात छ वर्षों में मात्र 1864 बंग्लादेशियों को 1,80,000 रूपये प्रति बंग्लादेशी की दर से निकाला जा सका। इसका यह अर्थ निकला कि दो करोड़ घुसपैठियों को बाहर कर रास्ता दिखाने में इस दर से हमें 64278 वर्ष में 36 लाख करोड़ रूपयों की जरूरत पडेग़ी। यही हाल देश की राजधानी दिल्ली का है। दिल्ली उच्चतम न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली में रह रहे इन घुसपैठियों को निकालने के लिए अनेक कार्य योजनाएं बनाई गईं, करोड़ों रूपये खर्च हुए किन्तु आज तक समस्या ज्यों की त्यों है। इनकी संख्या घटने की बजाये गुणात्मक रूप में बढ़ रही है।

विदेशी घुसपैठ की समस्या को विश्व के अन्य देश कैसे हल करते हैं इसका यदि अध्ययन करें तो पायेंगे कि अपने देश की सीमा में अनधिकृत प्रवेश पर अफगानिस्तान उन्हें जान से मार देता है, मैक्सिको, क्यूबा, वेनेंज्वेला, सउदी अरब व इरान अजीवन जेल में डाल देते हैं, उत्तारी कोरिया बारह साल का सश्रम कारावास देता है तो चीन उसे कभी दोबारा नहीं देखता है। यदि इन परिस्थितियों को भारतीय संदर्भ में देखें तो इन्हें हमारी सरकारें राशनकार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाईसेंस, वोटर आईडी कार्ड, क्रेडिट कार्ड, खाद्य सब्सिडी, हज सब्सिडी, नौकरी में आरक्षण आदि न जाने क्या क्या थाली में परोस कर देती हैं। और अब, जनसंख्या रजिस्टर में नाम दर्ज कर विशेष पहचान पत्र दिये जाने की तैयारियां पीछे के दरवाजे से चल रही हैं। इसके बाद यह सभी देश के दुश्मन भारतीय नागरिक बनकर देश के किसी भी भाग में कभी भी और कुछ भी करने को स्वतंत्र होंगे। इस प्रकार हम मूक दर्शक बन एक गम्भीर राष्ट्रीय खतरे को आमंत्रण देंगे। काश! देश के कर्णधार समय रहते इस खतरे को समझ पाएं।

2 COMMENTS

  1. बंसल जी ने कुछ पंक्तिओं में बहुत कुछ कह दिया है. वाकई भारत देश के लिए घुसपैठ बहुत बहुत ही बड़ी समस्या है. सरकार में हमेश से ही इक्षा शक्ति की कमी है. यह समस्या कैंसर की अंतिम स्टेज है जिसे फूटने से कोई रोक नहीं सकता है. आधा कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) आज भी पाकिस्तान के कब्ज्मे है.

  2. हर रोगकी ३ अलग अवस्थाएं होती है, वैसे ही हर समस्याकी भी ३ अवस्थाएं होती है।
    (१)प्राथमिक अवस्थामें उसे सुलझाना बहुत सरल होता है।
    (२)मध्यम अवस्थामें कुछ कठिन, पर फिर भी अधिक ध्यान और पर्याप्त संसाधन लगानेपर संभव होता है।
    (३) जब वह चरम अवस्थापर पहुंच जातीहै, तो फिर वह “कश्मीर समस्या” के समान “असंभव” बन जाती है।
    ऐसी “असंभव” कितनी समस्याएं गिनाए? चीन ने हडपा हुआ ४० हजार वर्ग मिलका भू भाग, कश्मीरसे हिंदुओंको भगाया जाना, बंगला देशी घुसपैठिए जो भारतके नागरिक बन बैठे है, नक्सली समस्याएं,……इत्यादि।
    “य़ह सारी समस्याएं जब अंकुरित हुयी थी, तो चुटकी में सुलझती, पर दुर्लक्ष्य़ किया गया, आज राक्षसी असंभव रूप धारण कर चुकी है।
    अब कमसे कम, क्षेत्र सीमित “आपात्काल” घोषित किए बिना यह समस्याएं, सुलझाना कठिन है। और बौने शासक ऐसा करनेकी सोच भी नहीं सकते।वे अल्प दृष्टि, स्वार्थी, अपनी जेबें भरने कुरसीपर बैठें हैं। जैसे तैसे कुरसी बनी रहे, सरकार गिरे बिना चलती रहे, जेब और्व स्विस अकाउंट बढता रहे, इस लिए जहां, चातुर्य पूर्ण वक्तव्य देना ही क्षमता और बुद्धिमानी समझी जाती है। ६३ वर्षमें ऐसा गया बिता शासन नहीं देखा।और हमारा नादान मत दाता?

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