उत्तरआधुनिकतावाद का प्रधान फिनोमिना है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

उत्तर आधुनिकतावादी विकास का प्रधान लक्षण है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार,नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति, अबाधित पूंजीवादी विकास,उपभोक्तावाद की लंबी छलांग और संचार क्रांति। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव एक ही साथ हुआ। सामान्य तौर इस पराभव को मीडिया में साम्यवाद की असफलता कहा गया। वास्तव में यह साम्यवाद की असफलता नहीं है। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है।

अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः आधुनिकीकरण की छलयोजना है और इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।

ध्यान रहे रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से भी जानते हैं और भारत में इसके जनक नरसिंहाराव-मनमोहन सिंह रहे हैं। जिसे मनमोहन अर्थशास्त्र कहा जा रहा है वह मूलतः आधुनिकीकरण की छलयोजना है और व्यवस्थागत भ्रष्टाचार का मूल स्रोत है। मनमोहन अर्थशास्त्र के लागू किए जाने साथ जितने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ है वैसा पहल कभी नहीं देखा गया।

भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट विभिन्न किस्म के भ्रष्टाचारों के जरिए नेताओं की मिलीभगत से हुई है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।

भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट के मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार बने। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।

इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है ‘‘इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होता है।’’

‘‘इस बात पर बल देना अनिवार्य है कि कार्य-कुशलता, उत्पादकता और वित्तीय संपन्नता जैसे संवर्ग तुलनात्मक हैं। अभिप्राय यह है कि उनके परिणामों की भूमिका उस क्षेत्र में आती है जिसमें अनेक असमान परिघटनाएं प्रतिस्पर्धा कर रही हों। अधिक कार्यकुशल और उत्पादक तकनीकी पुरानी मशीनरी और पुराने संयंत्र को तभी विस्थापित करती हैं, जब पुरानी मशीनरी और संयंत्र अधिक कार्यकुशल तथा आधुनिक तकनीकी के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं और उनके साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं।’’

इसी बात को सोवियत संघ के संदर्भ में आगे बढ़ाते हुए जेम्सन ने लिखा ‘‘सोवियत संघ अकुशल हो गया और जब इसने अपने को ‘विश्व-तंत्र’ के साथ एकीकृत करने का प्रयास किया, तो यह विघटित हो गया क्योंकि विश्व-तंत्र आधुनिकता से उत्तरआधुनिकता की ओर अग्रसर था। यह एक ऐसा तंत्र था जो संचालन के नए नियमों के हिसाब से उत्पादकता की अतुलनीय द्रुत गति से दौड़ रहा था। वहीं सोवियत संघ में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसकी इससे तुलना की जा सके। सांस्कृतिक अभिप्रेरकों (उपभोक्तावाद, नई सूचना प्रौद्योगिकी आदि) द्वारा प्रेरित, सुविचारित सामरिक-तकनीकी प्रतिस्पर्धा में आकृष्ट होकर, ऋण तथा तीव्र होते वाणिज्यिक सह-अस्तित्व के रूपों के प्रलोभन में आकर रूस एक ऐसे तत्व में प्रवेश कर गया जहां इसका अस्तित्व समाप्त हो गया। यह दावा किया जा सकता है कि सोवियत संघ और इसके अनुषंगी देश, जो अब तक अपने ही विशिष्ट दबाव क्षेत्र में अलग-अलग थे मानो किसी विचारधारात्मक सामाजिक, आर्थिक, भूगणितीय उभार (गुंबज) के नीचे दबे हों, ने अविवेकपूर्ण ढंग से बिना अंतरिक्ष-पोशाक तैयार किए ही वायुबंध खोलना आरंभ कर दिया और इस प्रकार स्वयं को और अपने संस्थानों को बाह्य विश्व के तीव्र और अपरिमेय दबाव के हवाले कर दिया। इसके परिणाम की तुलना हम प्रथम परमाणु बम के विस्फोट से हुई उन तुच्छ ढांचों की हालत से कर सकते हैं जो इस बम विस्फोट के स्थल के सबसे नजदीक थे, या फिर उन असुरक्षित जीवों की हालत से कर सकते हैं जो समुद्र तल पर उपस्थित थे जब जल में उत्पन्न विकृत दबाव का भार उन पर पड़ा होगा, खासकर जब यह दबाव से ऊपर की ओर उठ रहा होगा। यह परिणाम वॉलरस्टीन की दूरदर्शितापूर्ण चेतावनी की पुष्टि करता है। उन्होंने कहा था कि सोवियत ब्लॉक ने अपनी महत्ता के बावजूद पूंजीवादी तंत्र के विकल्प के रूप में किसी तंत्र का निर्माण नहीं किया। बल्कि इसके भीतर एक तंत्र-विरोधी क्षेत्र या स्थान बनाया, जो अब स्पष्टतया समाप्त हो गया है। यदि शेष कुछ बचे हैं तो वे कुछ पॉकेट्स हैं जिनमें आज भी विविध समाजवादी प्रयोग किए जा रहे हैं।’’

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