सत्ता बुनती है गरीबी का मकड़जाल

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सचिन कुमार जैन

सरकार ने गरीबों का बलिदान अभियान शुरू किया है| इसे गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की पहचान का सर्वेक्षण के नाम से जाना जाता है| इस सर्वे का मकसद गरीबों की पहचान करना नहीं बल्कि उन्हें उनके संवैधानिक हकों से वंचित करना है| पूरे देश में अगले 10 महीनों में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की पहचान की जायेगी| यह सर्वे यूँ तो हर पांच सालों में होना चाहिए पर वर्ष 2002 में, जब भारत के योजना आयोग ने देश में गरीबी के आंकड़े जारी करते हुए यह बताया कि हमारे यहाँ 1997 की तुलना में गरीबी 36 प्रतिशत से घट कर वर्ष 2002 में 26 प्रतिशत रह गई है तो माध्यम और उच्च वर्ग के लोगों को छोड़ कर हर व्यक्ति का मुंह खुला रह गया कि हैं! यह कब और कैसे हुआ? तब लोक स्वांत्र्य संगठन की अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के इस फर्जीवाड़े पर रोक लगा दी, जो वर्ष 2006 तक जारी रही| तब भारत की सरकार को यह मानना पड़ा था कि गरीबी 36 फ़ीसदी से कम नहीं हुई है| पर अब फिर मोंटेक, मनमोहन, रंगराजन और कौशिक बासु की चौकड़ी के नेतृत्व में फिर वही लफड़ा किया जा रहा है| योजना आयोग ने प्रोफ़ेसर सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में एक समिति बनायी जिसे यह बताना था कि देश में कितने लोग गरीब हैं| भारत में वर्ष 1979 से यह माना जाता रहा है कि भूख और पोषण गरीबी के सबसे बुनियादी सूचक हैं| और भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद् के मुताबिक हमारी परिस्थतियों में गाँव में रहने वाले लोगों को एक दिन में औसतन 2400 किलो कैलोरी और शहर में रहने वालों के लिए 2100 किलो कैलोरी पोषण मिलना चाहिए| यदि यह मानक लिया जाए तो एनएनएमबी के मुताबिक 76.8 फ़ीसदी लोगों को इतना भोजन और पोषण नहीं मिलता है| इस स्थिति से निपटने के लिए तेंदुलकर समिति ने यह मान लिया कि अब चूँकि विकास हो गया है और व्यक्ति को इतना श्रम नहीं करना पड़ता है, तो उन्होंने खाद्य एवं कृषि संगठन के उस नए प्रस्ताव को आधार बना लिया जिसमे यह कहा गया है कि भारत में अब गाँव में रहने वाले लोगों के लिए 1999 और शहर में रहने वाले के लिए 1770 किलो कैलोरी भोजन पर्याप्त है| और देश में इससे कम भोजन पाने वालों का प्रतिशत 37.2 है, तो उन्हें ही गरीब माना जाए| वास्तव में यह गरीबी की नहीं भुखमरी की रेखा है|

पिछले 8 वर्षों में सरकार के मुताबिक लोगों की गरीबी और भुखमरी कम हुई है, परन्तु औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गरीबी बढ़ी है| इसीलिए तो रोज़गार गारंटी योजना, राशन व्यवस्था, स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण हकों पर वर्ष 2011-12 में महज 1.34 लाख करोड़ खर्च किया जा रहा है, परन्तु कंपनियों को 5.36 लाख करोड़ रूपए के करों और शुल्कों की रियायत दे दी गयी| यही कारण है कि सरकार गरीबी के रेखा को छोटा और छोटा किया जा रहा है ताकि जनकल्याणकारी कार्यक्रमों और बुनियादी सुविधाओं पर राजकोषीय व्यय को कम किया जाए ताकि कारपोरेट क्षेत्रों को और फायदा पंहुचाया जा सके|

भरे पेट और आंकड़ों से खेलने वाले अर्थशात्रियों द्वारा तय इस परिभाषा पर बहस करने और सुझाव देने की किसी को अनुमति नहीं है| भारत में हर पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद सदस्यों तक हर चुनाव गरीबों और गरीबी के नाम और मुद्दे पर लड़ा जाता है| चुनाव से जीत कर लोग हमारे प्रतिनिधि बन कर संवैधानिक सदनों में जाते हैं ताकि वे अपने वायदों पर अमल कर सकें| पर क्या आपको पता है कि गरीबी की परिभाषा क्या होगी, इस पर 1992 से लेकर अब तक कभी भी संसद और विधान सभा में बहस ही नहीं हुई| यह कहना सही है कि संसद और विधानसभा को गरीबी तय करने का कोई हक़ ही नहीं है|

गरीबी की परिभाषा एक समय पर विश्व बैंक ने तय कर दी है और भारत की सरकारें अच्छे गुलामों की तरह उनका पालन करती हैं| योजना आयोग उनका भारत में एजेंट है| इस एजेंट ने अर्थशास्त्रियों के एक तबके को खरीद लिया है| जो यह बताते हैं कि गाँव में एक दिन में प्रति व्यक्ति 15 रूपए से कम और शहर में 20 रूपए से कम खर्च करने वाला परिवार ही गरीब माना जाएगा| इस मानक से भारत में 37.2 प्रतिशत यानी 41 करोड़ लोग गरीब हैं|

यदि भारत की सरकार यह मान ले कि देश में (गाँव और शहर दोनों में) 20 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम खर्च करने वाला परिवार गरीब माना जाएगा तो देश की 77 फ़ीसदी जनसँख्या यानी 93 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे माने जायेंगे| अब आप ही बताईये क्या सरकार के इस वहशीपन पर मौन वाजिब है…..!! क्या आप व्यस्त हैं|….अच्छा आपको एक जरूरी काम है!!…..ओह, आपको किसी से मिलने जाना है….!!

गरीबों की पहचान की तकनीक बेहतर हो इसके प्रयोग के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कुछ संस्थाओं से देश के 254 गांवों में प्रायोगिक सर्वेक्षण करवाए| इस परीक्षण से यह पता चला कि गरीबी के सूचक 20 से ज्यादा हो सकते हैं| हालांकि इसकी रिपोर्ट सरकार ने अभी तक सार्वजनिक नहीं की है, परन्तु इतना जरूर बताया गया कि यदि वंचितपन के कोई भी दो सूचकों के आधार बनाया जाए तो 66 प्रतिशत दलित और आदिवासी बीपीएल में होंगे| और यदि तीन सूचकों को आधार बनाया जाए तो 84 फ़ीसदी इस रेखा के अन्दर होंगे| इसके बावजूद सरकार ने यह सुझाव नहीं माना कि अमीरी के कुछ मापकों को छोड़ कर सभी दलितों और आदिवासियों को गरीब मान लेना चाहिए|

सिर्फ एक सूचक कितने लोगों को गरीबी से बाहर कर सकता है, आप समझ लीजिये| इस अध्ययन की परिणामों का विश्लेषण करने के बाद विशेषज्ञ समिति ने सरकार को बताया कि वास्तव में गरीबों की पहचान करना असंभव काम है, बेहतर होगा कि सरकार अमीरों की पहचान के सूचक तय कर दे और उनका सर्वे करे| इस सुझाव को भी कहीं कोई महत्त्व नहीं दिया गया|

हमें यह याद रखना चाहिए कि गरीबों की संख्या कितनी रखी जाए यह आज तय नहीं हो रहा है| वर्ष 1991 में उदारीकरण की नीतियों को अपनाने के बाद जब 1992 में हमारी नवीं पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो उसके वृद्धि और गरीबी पर आधारित दस्तावेज में यह उल्लेख किया जा चुका था कि नवीं पंचवर्षीय योजना के शुरू में देश में 29 फ़ीसदी लोग गरीब होंगे, दसवीं योजना के शुरू होते समय यानी वर्ष 2002 में यह संख्या घट कर 17.7 प्रतिशत और ग्यारहवीं योजना की शुरुआत यानी 2007 में 9.2 प्रतिशत हो जायेगी| हमारे योजनाकार मान चुके थे कि संसाधनों की लूट, निजीकरण और सब्सिडी कम होने से जो विकास होगा उससे देश में गरीबी पूरी तरह से मिट जायेगी| आज के लिए उनका आंकलन था कि भारत में केवल 4.4 प्रतिशत लोग गरीब रह जायेंगे| पर यह एक झूठ था, जो धीरे धीरे खुलता गया| वास्तव में यह मामला केवल सस्ते राशन से नहीं जुडा है, यह प्रमाण है इस बात का कि उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से गरीबी नहीं मिट सकती है| और दूसरी तरफ मोंटेक सिंह सरीखे विद्वान् यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि उनकी नीतियों के विकास केंद्रीयकृत हुआ है, पूँजी और संसाधन कुछ ख़ास लोगों के नियंत्रण में चले गए हैं और भुखमरी, असुरक्षा और उम्मीदों का संकट गहराता गया है| वे इस सच से आँख मूँद रहे हैं कि बहिष्कार और बेदखली से अपराध बढ़ रहे हैं और असमानता भी बढ़ी है| इसीलिए गरीबी की बहस में सरकार ईमानदार और सच्चाई पर नहीं है|

सत्ता के लिए गरीबी बने रहना जरूरी है, ताकि लोग भूख, रोज़गार और इलाज की जद्दोजहद से जूझते रहें, कोई सवाल न पूछें, बहस और संघर्ष न कर सकें, अपने हकों की बात न करे सकें| और पूँजी के पुजारी राजनीति का लबादा ओढ़ कर राज करते हुए ऐसी नीतियां लागू करते रहें जिससे संसाधनों और व्यवस्था पर उनका नियंत्रण बना रहे|

गरीबी की पहचान यानी गरीबी से मौत की सजा

गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की पहचान का सर्वे शुरू हो रहा है. अब आपके पास आकर पूछा जाएगा कि आपके घर में कितने कमरे हैं|..कमरे का मतलब सुनिए| वह ढांचा जिसका आकार 2 मीटर लम्बा, डेढ़ मीटर चौड़ा और 2 मीटर ऊँचा हो| इस ढाँचे को कमरा माना जाएगा| यह सूचक गाँव के उन घरों को ध्यान में रख कर बनाया गया है जो एक ख़ास परिस्थिति में बनाए जाते हैं| पर क्या आपको नहीं लगता कि सरकार अपने मन की बात बोल रही है? नहीं समझे क्या! इस आकार की तो कब्र बनती है!

भारत सरकार के योजना आयोग का मानना है कि गाँव में गरीब वह है जो एक दिन में 15 रूपए से कम खर्च करता है| और शहर में रहने वाला व्यक्ति यदि एक दिन में 20 रूपए से ज्यादा खर्च करते है तो वह अमीर है!! इसे कहते हैं नीति के हथियार से कत्ले-आम! इस कत्ले – आम में लोग सड़क पर ही नहीं बल्कि घरों में, खेतों में, फुटपाथों पर, इबादतगाहों में, स्कूलों में||| यानी हर कहीं चुपचाप लोग मरते रहते हैं| मैं आपकों नहीं बताऊंगा, पर गुजारिश करूंगा कि जहाँ पर भी आप रहते हैं वहीँ जरा आप अपने घर पर एक डिब्बा बनाइये और 15 या 20 रूपए में आप बाज़ार से क्या ला सकते हैं, उसे लाकर उस डिब्बे में रख दीजिये, फिर अपने सामने रख कर जरा सोचिये| और ध्यान रखियेगा कि योजना आयोग के मुताबिक़ इस राशि में शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन के खर्चे भी शामिल हैं|

गरीब कितने हैं यह तो केंद्र सरकार ने तय कर दिया| फिर इसके बाद वे राज्य सरकार को बताते हैं कि आपके राज्य में कितने गरीब हैं, अब आप उन्हें पहचानने के लिए जनगणना या बीपीएल सर्वे करिए| जो लोग गरीब माने जायेंगे उन्हें सरकार की योजनाओं का लाभ मिलेगा| पिछली बार जब केंद्र सरकार ने बताया कि देश में 6.5 करोड़ परिवार गरीब हैं और राज्य सरकारें उन्हें पहचानने के लिए घर-घर गयी तो पता चला कि वास्तव में 6.5 नहीं बल्कि 11.5 करोड़ परिवारों को सरकारी मदद देने की जरूरत है| राज्य सरकारों के पक्ष को केंद्र सरकार ने कभी नहीं माना और केवल 6.5 करोड़ परिवारों के लिए ही सस्ते अनाज का आवंटन किया| नयी जनसँख्या के मान से 17 करोड़ परिवार गरीबी की रेखा के नीचे हैं पर राज्य सरकारों को महज सवा 8 करोड़ परिवार गरीब मानने के लिए विवश किया जा रहा है| इससे शेष परिवारों को सस्ता राशन जैसे कार्यक्रम चलाने के लिए राज्य सरकारों को अपने सीमित बजट संसाधनों में से बड़ी धनराशि खर्च करना पड़ेगी| यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो जनता उन्हें अपने गाँव की सीमा में घुसने नहीं देगी|

बात यहीं ख़त्म नहीं होती है| बीपीएल सर्वे के लिए जो मानक योजना आयोग और केंद्र सरकार ने तय किये हैं वे उतने ही खतरनाक हैं जितना कि आतंकवाद और संसाधनों की लूट का मामला| यदि किसान के पास क्रेडिट कार्ड है, यानी यदि उस पर क़र्ज़ है तो वह अमीर है, यह सरकार मानती है| गरीबी के नए सूचकों में जिसके पास मोटरसाइकिल है वह गरीब नहीं माना जाएगा| उन्हें चार पहिया वाहन के मालिक के बराबर माना गया है| जिसके घर में रेफ्रिजरेटर है वह भी गरीब नहीं है| जिनके पास मोबाईल या लैंड लाइन फ़ोन है वह भी गरीब नहीं है| जब जाति दर्ज करने की बात आई तो सरकार ने कहा है कि केवल उन्ही लोगों को दलित माना जाएगा, जो या तो हिन्दू हैं, सिख हैं, या बुद्धिस्ट हैं|…. पर जो मुसलमान या इसाई दलित हैं उन्हें दलित की श्रेणी में दर्ज नहीं किया जाएगा| गरीबों की पहचान के इस सर्वे में परिवार की परिभाषा है – एक ही चूल्हे या रसोई के अंतर्गत रहने वाले लोगों का समूह| इसमें पति-पत्नी, बच्चे, बहू, सास-ससुर, यदि कोई नौकर है तो वह भी और इसमें पेईंग गेस्ट भी शामिल है| इन सबको मिला कर एक परिवार माना जाएगा|

पिछले आधे दशक में अल्पसंख्यकों की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थिति पर सच्चर समिति पर खूब जूतम-पैजार होती रही, और यह साफ़ भी हुआ कि उनकी स्थिति खराब है| पर जिस मुद्दे पर राजनीति होती है, उस मुद्दे पर राजनैतिक अर्थनीति केन्द्रित नहीं होती है| बीपीएल के इस सर्वे में अल्पसंख्यकों की शामिल करना तो दूर, उन्हें बाहर रखने की व्यवस्था की गयी है| जैसे मुस्लिम दलित बुनकर इसमें शामिल नहीं हो पायेंगे| फिर छोटे व्यवसायी इससे बेदखल होंगे| यदि एक सब्जी बेचने वाला यदि पुरानी मोपेड लेकर सब्जी बेचने लगेगा तो ऐसी व्यवस्था की गयी है कि वह सूची से बाहर हो जाए| भूमिहीनता के सूचक के साथ खेल करने में योजनाकारों ने खूब दिमाग लगाया है| यदि कोई भूमिहीन शारीरिक श्रमिक का काम करता है तो ही गरीब होगा; यदि वह नाई या टेलर का काम करके गाँव में कुछ थोडा बहुत कमा रहा है तो उसके भूमिहीन होने के कोई मायने नहीं माने जायेंगे| सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी डा सक्सेना समिति ने सुझाव दिया था कि एकल महिला परिवार, महादलित परिवार, एड्स से ग्रसित लोगों को स्वतः गरीबी की रेखा में मान लेना चाहिए, पर इन सूचकों को बाहर करके, इन वंचित तबकों को भी बेदखल कर दिया गया|

उन बंधुआ मजदूर परिवारों को गरीब माना जाएगा जो कानूनी रूप से छुड़ा कर पुनर्वसित कराये गए हैं| आपको पता होगा कि पहले तो सरकार मानती ही नहीं है कि बंधुआ मजदूरी है, और जब बात उन्हें मुक्त कराने की आती है तब जरा नोट कीजिये कि पिछले 10 सालों महज़ 300 परिवार मध्यप्रदेश में इस श्रेणी में आयेंगे| कुछ बीमारियाँ गरीबी से जुड़ गयी हैं| तपेदिक, सिलिकोसिस ऐसे रोग हैं जो लोगों को गरीबी के चक्र में फंसाते हैं, पर इन्हें कहीं पर भी गरीबी का सूचक नहीं माना गया है|

ग्रामीण विकास मंत्रालय ने वंचितपन के 7 सूचक तय किये हैं| | जैसे पहला सूचक – ऐसे परिवार जिनका घर एक कमरे का है जिसमे कच्ची दीवार और कच्ची छत है, दूसरा सूचक – जिनमे 16 से 59 वर्ष की उम्र के बीच का कोई वयस्क व्यक्ति नहीं है, तीसरा सूचक – ऐसे परिवार जिनकी मुखिया महिला है और 16 से 59 वर्ष की उम्र का पुरुष नहीं है, चौथा सूचक – जिनमे विकलांग सदस्य है परन्तु श्रम करने लायक वयस्क सदस्य नहीं है, पांचवा सूचक – दलित या आदिवासी परिवार है, चत्वा सूचक – जिसमे 25 वर्ष से ज्यादा उम्र का साक्षर सदस्य नहीं है, सातवां सूचक – ऐसे भूमिहीन जिनकी ज्यादातर आय शारीरिक श्रम मजदूरी से आती है| इन सूचकों में यह कहीं भी नहीं है कि उनकी आय कितनी है, वे भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर कितना खर्च कर पाते हैं, बदहाली के कारण पलायन करने वाले और विस्थापन के शिकार लोगों के इससे बाहर रखने की कोशिश की गयी है|

इस बार सबसे बड़ा सवाल यह था कि ऐसा सर्वेक्षण हो जिसमे सबसे कम बहिष्कार और गलतियाँ हों| पर अब साफ़ है कि सब कुछ गड़बड़ होने वाला है| इस मर्तबा कागज़ का फार्म नहीं होगा| हर सर्वेकर्ता को एक टेबलेट कम्पूटर दिया जाएगा, जिसका आकार मोबाइल फ़ोन से थोडा बड़ा होगा| और हर सर्वेकर्ता उसमे सीधी जानकारी दर्ज करेगा| एक नया उपकरण, तकनीकी मामला और सर्वे करने वाले हैं पटवारी, आशा कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कार्यकर्ता आदि|

यह बेहद गंभीर मसला है कि जिन लोगों की गरीबी की बात हो रही है, उनसे न तो योजना आयोग कुछ पूछता है, न ही ग्रामीण विकास मंत्रालय| फिर अंकों और प्रतिशत में तय हो जाती है गरीबी की परिभाषा. एक घोटाले की पूरी रूपरेखा रच दी गयी है| सबकुछ तय हो गया है| और अंत में जब एक ऐसी सूची तैयार हो जायेगी जिसमे से आधे वो लोग बाहर होंगे, जो वास्तव में गरीब हैं| उस सूची को ग्राम सभा में रखा जाएगा| ग्राम सभा ही इसे सहमति देगी| उसे यह निर्णय लेने का अधिकार न होगा कि वह 100 लोगों के नाम उसमे जोड़ दे, क्यूंकि गरीबों की अंतिम संख्या तो योजना आयोग पहले ही तय कर चुका है| उसमे कोई ताकत बदलाव नहीं कर सकती है| इसके बाद जब सरकार के नुमाइंदे किसी मंच पर जायेंगे तो वहां व्याख्यान देंगे कि देखिये हमारे यहाँ गरीबी की रोखा की सूची को ग्राम सभा यानी गाँव की सभा अंतिम निर्णय लेती है| यह है लोकतंत्र, जहाँ लोक तंत्र के जाल में फंसा है| आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस पूरे मामले में राज्य सरकारों को अपनी बात कहने का कोई अधिकार ही नहीं है, जबकि इसके परिणाम उन्हें ही भुगतने पड़ते हैं| राजनीति का तो यही तकाजा यही है कि राज्य सरकारें इस मामले पर अपनी बात रखें और अडिग रहें, तो ही योजना आयोग और विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों का जाल तोडा जा सकता है|

3 COMMENTS

  1. अत्यंत विचारोत्तेजक, मर्म स्पर्शी लेख है. भारत के दैन्य और भारत की क्रूर सरकार का वास्तविक चित्रण है. पता नहीं भारत की जनता इन कसाईयों का जुआ कब उतारेगी.

  2. सचिन जी वास्तव में सरकार न तो गरीबी के सही आकडे चाहती है ना ही गरीबी को मिटाना छाती है

    अगर ये सब मिट जयेगे तो आज जो गाँधी नेहरू के नाम की २५० योजनाये देश में चल रही है उनका तो भट्टा बैठ जाये गा

    नैतिक द्रष्टि से गरीबो की गाड़ना करना एक बेहद गलत वा जटिल कार्य है .

    सरे आम गरीबो को गली दी जाती है

    फिर यह सरकार आसन काम क्यों नही करती अति अमीर,अमीर, सामान्य अमीर यह गड़ना तो आसान है क्यों नही करवाती .

    गरीबो की संख्या अपने आप पता चल जाएगी .

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