प्रभुजी की रेलःखिड़की कूद आरक्षण से बुलेट ट्रेन तक…!!

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reservationतारकेश कुमार ओझा
रेल बजट के दौरान हर साल जो भारी भरकम आंकड़े पेश किए जाते हैं वे कभी मेरी समझ में नहीं आए। दावे और बहस कि रेलवे को चलाने के लिए इतना खर्च होता है जबकि आय महज इतनी है… या रेलवे का कोष इतने हजार करोड़ का है लेकिन अभी उसे कायदे से और इतने हजार करोड़ की दरकार है… जैसी बातें मेरी पल्ले नहीं पड़ती। देश के करोड़ों रेल यात्रियों की तरह मैं तो बस इतना जानता हूं कि ट्रेन में यदि इंसान की तरह सफर करने को मिल जाए और ट्रेन समय से अपने गंतव्य तक पहुंच जाए तो ईश्वर के साथ रेलवे को भी थैंकक्यू … कहने को जी करता है। क्योंकि 70 से 80 के दशक के मध्य बड़ी होने वाली हमारी पीढ़ी खिड़की कूद आरक्षण के दौर से निकल कर आई हैं। क्योंकि तब ट्रेनों के डिब्बों में लोहे के सरिए नहीं होते थे। तिस पर अग्रिम आरक्षण जैसी चिड़िया से भी ज्यादातर लोग अनजान ही थे। लिहाजा खुली खिड़कियों से माल – आसबाब फेंक कर यात्री सीधे डिब्बे में घुस जाता था।इस मुद्दे पर पूरी यात्रा के दौरान डिब्बे में यात्रियों के बीच लड़ाई – झगड़े होते रहते थे। इससे बालपन के कोमल मन से यात्रा की सुखद कल्पना जाती रहती औऱ हम पूरी यात्रा तक बुरी तरह से डरे – सहमे रहते। कम से कम हिंदी पट्टी की ट्रेनों में तो यह रोज की बात थी। इस तरह खिड़की से इंसान के डिब्बे में घुसने से तब के हमारे जैसे निरीह बच्चों को असह्य यंत्रणा झेलनी पड़ती थी। हम चीखते – चिल्लाते थे तो कूदने वाला इस पर खेद जताते हुए क्षमा याचना भी करता। लेकिन इससे चोट की टीस भी कभी कम होती है भला.. । यात्रा शुरू करने लेकर मंजिल को पहुंचने तक यह सिलसिला कमोबेश चलता रही रहता था। खैर यह दौर खत्म हुआ। सरिए लग जाने से खिड़की कूद आरक्षण खत्म हुआ और कंप्यूटरीकृत आरक्षण प्रणाली शुरू हुई।हालांकि आम – यात्रियों के लिए सूरत ज्यादा नहीं बदली।यह सच्चाई है कि विशेषज्ञों के विपरीत रेलवे के मामले में लाखों रेल यात्रियों का ताल्लुक बस कुछ मोटी बातों से है। उनकी अपेक्षा बस इतनी है कि रेलयात्रा सुखद और आऱामदायक रहे। जिसकी अक्सर कमी महसूस होती है। रेलवे के मामले में कुछेक बातें मुझे हमेशा चुभती है औऱ समझ में नहीं आता कि मामूली लगने वाली इन समस्याओं का निस्तारण आखिर किस तरह संभव है। मसलन यात्रा शुरू करने से लेकर समाप्त होने तक कदम – कदम पर नजर आने वाली भिखारियों की फौज।रवानगी के लिए स्टेशन पर कदम रखते ही लगभग कदम – कदम पर चेहरे पर दीनता चिपकाए भिखारियों की टोली नजर आती है, जिसमें मासूम बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक शामिल होते हैं। जिन्हें झेलते – झेलते यात्रा के पल पूरी तरह से चिंतन शिविर में तब्दील हो जाते हैं। सोच में पड़ जाना पड़ता है कि क्या अपनी रेल को कभी इस समस्या से स्थायी मुक्ति मिल भी सकती है। दीन – हीन बन कर लोगों से मांगते – फिरने वाले इन भिखारियों की संख्या कम होने के बजाय आखिर क्यों दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। समय के साथ लाठी लेकर घूमने वाले सुरक्षा जवानों के हाथों में अत्याधुनिक हथियार आ गए, लेकिन पैसेंजर से लेकर सुपरफास्ट एक्सप्रेस तक में रंगदारी मांगने वाले किन्नरों पर इनका बस क्यों नहीं चलता। यह भी समझ से परे है। बुलेट ट्रेन को ले कभी ज्यादा मगजमारी नहीं की। लेकिन रेलवे के मामले में यह बात हमेशा अखरती है कि इसके पूछताछ कार्यालयों के फोन ज्यादातर उठते क्यों नहीं। कभी उठते भी हैं तो बगैर पूरी बात सुने उठाने वाला रिसीवर रख क्यों देता है। अधिकारियों से सीधी शिकायत समेत चाहे जो उद्यम कर लें, इस समस्या से मुक्ति का कोई रास्ता अपने को आज तक नहीं सूझ पाया।

1 COMMENT

  1. आज से 5 दशक पूर्व हमारी रेल व्यवस्था चीन की व्यवस्था से श्रेष्ठ थी। लेकिन हमने अपेक्षित आधुनिकीकरण भी नही किया और मांग के अनुपात में क्षमता व्रुद्धि भी नही किया। हम बहुत पिछड़ गए है। हमे गति (स्पीड) , परिमाण (साइज) और तकनीकी में युगांतकारी काम करना होगा। सबसे गरीब आदमी ट्रेनों में जिस प्रकार सफर करता है वह दयनीय है। सुरेश पर्भु अवश्य कुछ अच्छा करेंगे। अगर विपक्ष उन्हें काम करने दे तो।

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