किस करवट बैठेगें प्रचंड

prachandपड़ोसी राष्ट्र नेपाल में हुए सता परिर्वतन के बाद भारतीय नेतृत्व को वहां उम्मीद की नई किरण दिखाई देने लगी है। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की घर वापसी और यूनाईटेड कम्युनिस्ट पार्टी ( माओवादी) के प्रमुख पुष्प कमल दहल प्रंचड का सता में आना एक ऐसा सूर्योदय है जिसके प्रकाश में भारत-नेपाल संबंधांे की नई इबारत लिखी जा सकेगी। यह एक ऐसा अवसर है जहां भारत नेपाल में अपनी वापसी कर सकेगा। लेकिन सब कुछ एक अकेले भारत पर निर्भर होगा ऐसा भी नहीं है। दोनों देशों के संबंधों पर जमी हुई बर्फ पिघल सके और रिश्तों में नई गरमाहट लौटे इसके लिए जरूरी है कि दोनों ही देश अपनी बरसों पुरानी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को याद करते हुए मित्रता की राह पर आगे बढ़े ।
भारतीय नेतृत्व भी इस बात को लेकर अतिरिक्त उत्साह दिखा रहा है कि नेपाल में जिस प्रभाव को वह खो चुका है अब उसे पुनः प्राप्त करने का अवसर आ गया है। इस तरह की खुशफहमी होना जायज भी है और वर्तमान परिस्थितियों में जरूरी भी है। दरअसल पूर्व प्रधानमंत्री कोली के 10 माह के कार्यकाल में चीन और नेपाल के बीच संबंध इतने गहरे विश्वास पर आधारित हो गए कि नेपाल को चीन की गोद से निकालना भारत के लिए लगभग नामूमकिन हो गया। पहले प्रचंड और फिर ओली के समय में काठमांडू और बीजिंग के बीच बढ़ती घनिष्ठता से एक बारगी तो लगने लगा कि नेपाल भारत के हाथ से निकल चुका है। ओली के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तेजी से चीन ने वहां अपना प्रभाव स्थापित किया है उससे नेपाल को बाहर निकालना भारत के लिए सरल नहीं है। इस लिए यह सोचना की केवल चीन समर्थक ओली की घर वापसी और प्रचंड के सता में आने मात्र से भारत नेपाल में पुनः अपना प्रभाव स्थापित कर सकेगा एक कपोल कल्पना ही है।
प्रचंड भी रहे हैं भारत विरोधी: माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड भी अपने भारत विरोधी रूख के लिए जाने जाते हैं। सन 2008 में जब प्रचंड पहली दफा नेपाल की सता पर काबिज हुए उस वक्त उन्होंने भारत विरोधी रूख अपनाते हुए लगातार चीन के साथ संबंधों को मजबूत किया। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने ऐसे निर्णय लिये जो किसी भी दृष्टि से भारतीय हित में नहीं थे। प्रधानमंत्री बनने के तंुरत बाद उन्होने स्थापित पंरपरा को तोड़ते हुए ओलंपिक खेलों में शामिल होने का बहाना कर बीजिंग की यात्रा की। प्रचंड की यह यात्रा इस लिए महत्वपूर्ण थी क्यों कि अब तक नेपाली नेता पद ग्रहण करने के बाद सबसे पहले भारत की यात्रा पर आते रहे हैं। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने 1950 की भारत-नेपाल शांति संधि में बदलाव के लिए भी आवाज उठाई। पिछले दिनों जब नेपाल में नए संविधान को लागू किये जाने के बाद मधेसियों ने आंदोलन शुरू किया तो प्रचंड ने इसके लिए भी भारत को ही जिम्मेदार ठहराया। अपनी भारत विरोधी मानसिकता के चलते प्रचंड ने नेपाल की अस्थिरता के पीछे भी भारत का हाथ होने का आरोप लगाया । उनका कहना था कि अघोषित नाकेबंदी के नाम पर भारत नेपाल की भावनाओं के साथ खेल रहा है। ध्यान रहे कि पद से हटने के बाद भी प्रचंड ने भारत विरोध की नीति जारी रखी। कहने का अर्थ यह है कि प्रचंड ने भारत के विरूद जहर उगलने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दिया।
टकराव का आरंभः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल यात्रा और अप्रेल 2015 में आए विनाशकारी भूंकप के बाद भारत ने जिस उदार हद्वय से नेपाल की मदद की उससे दोनों देशों के बीच संबंधों का नया दौर शुरू हुआ। परन्तु संबंधों का यह दौर ज्यादा वक्त नहीं चल सका। नवंबर 2015 में नया संविधान लागु किये जाने के वक्त भड़की हिंसा व आंदोलन के बाद भारत-नेपाल संबंधों मे पुनः तल्खी आने लगी। मधेसी आंदोलन के दौरान अघोषित नाकेबंदी के चलते नेपाल मंे तेल, गैस व अन्य जरूरी वस्तुओं का संकट गहरा गया। ऐसी स्थिति में नेपाल ने चीन से मदद की गुहार लगाते हुए मांग की कि वह नेपाल से लगने वाली चीनी सीमा को खोल दे ताकि वह जरूरत की चीजांे को खरीद सके। चीन भला ऐसे मौके को कब हाथ से जाने देने वाला था। लेकिन नेपाल में आई प्राकृतिक आपदा के कारण नेपाल-चीन के बीच बना 27 किलोमीटर लंबा सड़क मार्ग पूरी तरह से टूट गया था जिसके चलते चीनी मदद नेपाल नहीं पहंुच पाई और चीन मन मसोस कर रह गया।
सरल नहीं है भारत की राहः भारत के सामने सबसे मुश्किल समस्या यह है कि वह चाहकर भी नेपाल के साथ पहले की तरह द्विपक्षीय संबंधों को विकसीत नहीं कर सकेगा। क्यों की दोनों देश के बीच होने वाली किसी भी बातचीत पर चीनी प्रभाव की काली छाया सदैव मंडराती रहेगी। दूसरी और नेपाल के ताजा हालात पर बारीकी से निगाह रखने वाला चीन कभी ऐसी चूक नहीं करेगा जिसके चलते प्रचंड का रूख भारत की ओर हो। हाल ही में चीन और नेपाल के बीच तेल आपूर्ति और इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट को लेकर महत्वपूर्ण समझौते हुए है। वर्ष 2019 तक चीन काठमांडु को रेल लाइन द्वारा जोड़ने की योजना पर भी काम कर रहा है। स्थितियों का आंकलन यह बताता है कि भारत के मुकाबले चीन नेपाल में बेहतर स्थिति में है। फिर भी भारतीय नेतृत्व को वहां उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए क्यों कि परिस्थितियां और दृष्टिकोण बहुत छोटी सी घटना से भी बदल जाया करते है।
सता परिर्वतन के बाद अब गेंद नये प्रधानमंत्री प्रचंड के पाले में है। देखना यह है कि प्रचंड भारत के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों को विकसित करने की दिशा में काम करेगें या अपने उस रूख पर कायम रहेगें जिसके लिए वो जाने जाते है।
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