प्रेमचंद आउट !!

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अशोक गौतम

मेरे पास रहने को कमरा नहीं है। किराए के स्टोर के साथ लगते अपने गुसलखाने को मैंने लेखकीय प्रेम के चलते लेखक गृह बना रखा है ताकि कोर्इ भी भूला सूला लेखक यहां आकर रात बरात चैन से रह सके। मैं वैसे कोशिश करता हूं कि पुराने सुराने लेखक ही यहां आकर रहें क्योंकि नए लेखकों के नखरे तो उनके लेखन के चार कदम के आगे के हैं। उनमें लेखकों वाली कोर्इ भी बात कम ही दिखती है। वे लिखते कम हैं तो गिनते अधिक हैं। रही पुराने सुराने लेखकों की बात, उन्हें तो सोने के लिए जो मिल गया इंद्र का सिहांसन समझ इस पर पड़ते ही खर्राटे भरने लगते हैं।

आने जाने के सिलसिले में कल प्रेमचंद आ धमके! चेहरे पर वही पुरानी उदासी! ये लेखक भी न! अपने लेखन के माध्यम से भले ही समाज को बदलने का माददा रखते हों पर अपने चेहरे को नहीं बदल नहीं सकते तो नहीं बदले सकते!

चाय पानी के बाद मैंने उनसे उनके आने का कारण पूछा तो वे उदास चेहरे पर तनिक मुस्कुराहट लाते बोले ,’ यार! तुम्हारे यहां के विष्वविधालय में कल मेरा प्रोफेसरी का इंटरव्यू है। सबसे ऊपर मेरा नाम है मैरिट में! उन्होंने कहा तो मैं चौंका! मेरे चौंकने पर अंगडा़र्इ ले वे आगे बोले, लिख कर तो पेट भर नहीं पाया, सोचा, अब अपने लिखे को बांच कर ही पेट भर लिया जाए। लिखने वालों की अपेक्षा बांचने वालों के यहां वाह क्या मजे हैं, कह उन्होंने अबके आधी चाय प्याली में छोड़ दी। प्रोफेसर होने जो जा रहे थे! लेखक ही होते तो चाय की खाली प्याली को चार बार उंगली डाल चाट लेते।

‘ प्रोफेसर बोले तो.. मेरा मतलब, कुछ रिसर्च पेपर पूपर भी लिखे हैं क्या ,इधर उधर से ही सही? तो वे तुनक कर बोले,’ हद है यार! आरिजनल लिखने वाले से ये कह रहे हो? मैं भी कहानी लिखना बंद कर दूं तो स्कालर क्या खाक पेपर लिखेंगे? वे क्या खाक प्रोफेसर होंगे! गटर पर महल खड़े हुए हैं क्या! अगर कर दो तो दूसरे दिन धराशाही न हो जाएं तो मेरा नाम बदल कर रख देना। मेरे लिखे हुए को अपने अपने ढंग से पेश करने वाले प्रेाफेसर हो रहे हैं तो मैं क्यों नहीं हो सकता?’

और अगले दिन वे मेरे गुडलक को ले मचलते हुए इंटरव्यू देने निकल पड़े। मैंने उनका पाजामा खुलवा अपनी पैंट पहनार्इ तो वे जरा से बिदके तो सही पर अगले ही पल नार्मल हो गए।

शाम को जब वे आए तो उनका चेहरा उतरा हुआ। मानो किसी प्रकाशक के हाथों फिर छले गए हों, या हंस पर ताला लगने की नौबत आ गर्इ हो। उनके इंतजार में मैंने दोपहर से ही चाय की केतली स्टोव पर रख दी थी। मैंने उम्मीद की मुद्रा में डरते हुए पूछा,’ और! कैसा रहा इंटरव्यू! फिर कब ज्वाइन कर रहे हो? तो वे बड़ी मुश्किल से इकटठी की व्याधियां सारी उपाधियां परे फेंकते बोले,’ कहां यार! वहां तो मैं सबसे नीचे हो गया! इंटरव्यू तक तो नौबत ही नहीं आर्इ।

‘ कैसे?? तो वे हंसते हुए बोले,’ मेरा एपीआर्इ स्कोर सबसे नीचे जा पहुंचा। मुझसे भी नीचे! जोड़ा भी उन्हीं ने था, तोड़ा भी उन्हीं ने ही। उसके बाद जब मेरी रचनाएं जांची जाने लगी तो पूछा- गोदान किसका है? मैं बोला, मेरा साहब! तो वे पूछे- आइएसबीएन है क्या! मैं बोला- साहब नहीं! मूल प्रति है, बड़ी मुश्किल से छपवार्इ थी। तो वे बोले- नहीं चलेगा, और कुछ लाए हो क्या! हां साहब! कर्मभूमि है! तो दिखाओ? मैंने कर्मभूमि उनके सामने रख दिया तो वे पूछे, आइएसबीएन है क्या? नहीं, मैंने कहा। तो वे बोले- इसे परे करो। अगला- निर्मला है! आइएसबीएन तो होगा ही? नहीं साहब! हिंदी साहित्य प्रकाशन जगत में पहले ये आइएसबीएन नहीं था। तो अगला? रंगभूमि है। देखो- कोर्इ आइएसबीएन है तो कहो! वे पूछते हुए खीझ से गए थे! हां साहब! कफन आइएसबीएन है। कुछ पत्रिकाएं आइएसबीएन, आइएसएसएन हैं, उन्होंने इस कहानी समेत मेरी कर्इ कहानियां विषेश मौकों पर छापी हैं, चलेंगी? नहीं , पत्रिकाएं नहीं चलेंगी, अखबार भी नहीं चलेंगे, चाहे आइएसबीएन हों या आइएसएसएन। देखो मि. प्रेमचंद ! यूजीसी की गाइड लाइन से बाहर हम तनिक नहीं जा सकते। बस, मैं जीरो हो गया! अब उन्हें कौन समझाता कि आइएसबीएन जनरलों में विशुद्ध साहित्य नहीं, वह तो पत्रिकाओं में ही छपता है।

‘तो ?? किसीसे आगे बात नहीं की?

‘ जब पता चला कि असगर वजाहत साहब भी आए हैं,सोचा, उनसे कहानी पर नए कोणों से चर्चा कर लूं, पर पता नही मन क्यों न हुआ, और तुम्हारे क्या चल रहा है?

‘ पंद्रह साल पहले मैंने भी एक विश्वविधालय में प्राध्यापक के पद के लिए आवेदन किया था। इंटरव्यू की बाट जोह रहा हूं, ऊपर भी जोहता रहूंगा! तो अब??

‘अब क्या ! मैं अभी की बस से जा रहा हूं अपनी लमही। एक कहानी का प्लाट ज़हन में कौंध रहा है। उन्होंने चाय भी नहीं पी और अपना पाजामा वहीं फेंक मेरी पैंट में ही चलते बने।

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