प्रेमचन्द का पोएटिक जस्टिस

प्रेमचन्द हिंदी साहित्य के एक ऐसे वट वृक्ष हैं जिनकी छाया में साहित्य का हर पल्लव पल्लवित होता है ,उनकी रचनाओं की छाँह में एक सुख है ,एक सुकून है ।उनके पुत्र अमृतराय ने भी एक बार कहा था कि “प्रेमचन्द सिर्फ उनके नहीं,बल्कि सभी के हैं “।अब ये बात और भी समीचीन मालूम पड़ती है कि होरी,धनिया,के सौ वर्ष गुजर जाने के बाद भी हर गांव में होरी के खेत, धन ,गिरवी क्यों हो जाते हैं।सौ सालों बाद भी अपनी जमीन पर हाड़तोड़ मेहनत करने वाला किसान स्वाभिमान से क्यों नहीं जी पाता।शतरंज के खिलाड़ी कहानी में वो मुद्दा उठाते हैं कि स्टेट की सारी दौलत कैसे राजधानी में लुटा दी जाती है ।हालात कमोबेश ऐसे ही हैं ,भारत का गांव,खेती,जाति का अर्थशास्त्र आज तक नहीं बदला है ।   उनकी रचनाओं ने जो सवाल उठाए थे ,उस समय उनको लगा था कि सुराज आयेगा तो ये सब समस्याएं सुलझ जाएंगी।सुराज ने सात वेतन आयोग के जरिये लोगों का दुख दर्द तो समझा लेकिन किसान के लिये कुछ खास हो न सका ।आज भी बहुसंख्य भारत जस का तस है ,ये और बात है कि हिंदी कहानी ने गांव,खेती और जन से मुंह मोड़ लिया है ।उसके मुद्दे अब पश्चिम से आयातित हैं ।अब रसभरी,वाद,एजेंडे की रचनाएं लिखी जा रही हैं लोगों को बताया जा रहा है कि इच्छाओं की असंतुष्टि ही सबसे बड़ा एजेंडा है ,इच्छा और एजेंडा सबका अलग अलग है ।अब साहित्य जुगुप्सा जगाने का माध्यम है ,समाज के आगे चलने वाली मशाल नहीं ।प्रेमचन्द कहते हैं कि “पढ़कर आनंद के अतिरेक से आँखे सजल न हो जाएं तो वो साहित्य कैसा “अब का धुंधुआता साहित्य पढ़कर पाठक की कौन सी भावना जागृत हो जाती है ,ये कोई गूढ़ विषय नहीं है । उनके इस सवाल का जवाब देना बहुत मुश्किल है क्योंकि प्रेमचन्द तो जन जन की भाषा है ,प्रेमचंद का शायद ही कोई ऐसा साहित्य हो जिससे पढ़ने वाले और लिखने वाला खुद को महदूद कर सके ,वो जन -जन की जुबान हैं ।ये प्रेमचन्द के ही बूते की बात थी कि उन्होंने सहज -सरल हिंदुस्तानी जुबान में आम आदमी के रोजमर्रा का सुख दुःख लिखकर उसे खास बना दिया ।ये बात यकीन करना मुश्किल है कि धनिया,होरी आज विश्व साहित्य के किरदार हैं।उनकी रचनाओं की अनपढ़ स्त्रियां भी नारी शक्ति का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करती हैं ,जिस हामला स्त्री को उसका पति छोड़कर भाग जाता है ,उसे उसकी सास घर में पनाह देती है और पंचायत के सामने आकर निर्भयता से अपनी बात कहती है ।प्रेमचन्द जब रामचर्चा लिखते हैं तब गद्य में वे एक काव्य रच रहे होते हैं ,ऐसी नफासत की अवधी -उर्दू की जुबान वे रामायण के किरदारों से बुलवाते हैं कि क्या कहने ?रामचर्चा में वे अवध के जनश्रुति के राम को लेकर सामने आते हैं ,ये सिर्फ भक्ति नहीं ,जनता की राम की आसक्ति भी है जिसमें अगाध श्रद्धा के तहत सिर्फ अयोध्या की तरफ हाथ उठा देने को ही ईश्वर के समक्ष होने का पर्याय मान लिया जाता है ।ये प्रेम उनका मनुष्यों तक ही नहीं पशु पक्षियों तक जाता है जिसमें बैल से लेकर झबरा कुत्ता तक है ।गाय, बैल,कुत्ता,बिल्ली से भी उनकी कहानियों के मूक नायक रहे हैं ,वरना एक बैल के मर जाने पर उसकी दूसरी गोईं भी का भी जीना मुहाल हो जाता है और वो भी कुछ दिनों में अपने प्राण त्याग देता है ।मन्त्र कहानी में सांप और नायक एक दूसरे के प्रति सुरक्षित और आश्वस्त रहते हैं ,सांप के जहरीले दांत तोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती ,लेकिन जहां रिश्ते में अविश्वास पैदा होता है वहीं पर वो डस लेता है नायक को ।गौरतलब ये है कि प्रेम चन्द अपने किरदार गेंहुवन सांप के जरिये ये कहानी रचते हैं कि आज नायक ,गर्दन दबाकर सांप के प्राण ले लेगा।इस इम्कान के बाद सांप क्रोधित हो जाता है और जमीन पर रखते ही नायक को डस लेता है ।डॉ चड्ढा के विलाप के  मार्फ़त उन्होंने मृत्यु शय्या पर पड़े उनके पुत्र के सबब बोले गए वचन इस संसार में भौतिक सफलता की व्यर्थता को सिद्ध करते हैं कि उनका सारा राजपाट बेकार और भगत उनकी तम्बाकू का भी दफेदार बने बिना चला गया। एक मशहूर शायर ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं 
“घाट हजारों इस दरिया के लेकिन सबका पानी एकअपने अपने राम सभी के ,सबकी राम कहानी एक “प्रेमचन्द ने इस बात को अपनी करीब करीब हर कहानी में उकेरा है,सबकी रामकहानी कहते हुए वे एक पोएटिक जस्टिस देते हैं  कि “पाप से घृणा करो,पापी से नहीं ” ।इसलिये उनके किरदार जो शुरू से खलनायक रहते हैं कहानी के अंत में आकर नायक सा बर्ताव करते हैं ,और उनके नायकों में कदम -कदम पर खलनायक सिर उठाते रहते हैं जिनका वे बार -बार पश्चाताप करते हैं,इसलिये कभी घर छोड़ते हैं तो कभी जीवन से विरति करते हैं।मनुष्य के जीवन के दो पक्ष प्रस्तुत किये कि कोई आदमी पूरी तरह से न तो राक्षस होता है और न ही देवता।क्योंकि कफ़न कहानी में घर में पड़ी स्त्री के कफ़न के पैसों की शराब पीने के बाद ,भूख से उनके भोजन को निहार रहे एक भिखारी को दयावश वे अपने हिस्से का भोजन और शराब भी दे देते हैं। प्रेमचन्द ने जब खड़ी बोली में हिंदी में लिखना शुरू किया उस समय हिंदी साहित्य विद्वता,पांडित्य के आभामण्डल से अभिभूत था ,लेकिन प्रेमचन्द ने उसे जन जन की जुबान बना दिया ।देशज शब्दों का प्रयोग जैसे पंवारा,झौआ,पहुना आदि शब्द उन्होंने हर कोने तक पहुंचाया।वे साहित्य को विद्वता के प्रदर्शन के बजाय सम्प्रेषण का माध्यम मानते थे ।एक ऐसे दौर में जब कलम पर पहरे थे ,साहित्य का मतलब सिर्फ ओजपूर्ण कविता थी ,तब उन्होंने कहानियां के जरिये आम जनमानस के दिमाग में खलबली भर दी थी ।कहानियों से उन्होंने जिस भारत की तस्वीर खींची वो अप्रतिम थी।भूख के अर्थशास्त्र ,को जीवन में उन्होंने सर्वोपरि स्थान दिया ,लेकिन भूख के लिये नैतिकता को गिरवी रखने को सदैव उन्होंने हतोस्ताहित किया।प्रेम उनकी ज़िंदगी की सबसे महत्वपूर्ण भूख रही है ।अपनी आत्मकथा में वे बालपन में अपनी माता के प्रेम की जिस वंचना को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “वही भूख मेरी ज़िंदगी है “ये भूख उनके हिस्से का प्रेम और संवेदना है जिसकी तलाश वे अपने हर किरदार के जरिये हर रचना में करते रहते हैं ।प्रेमचन्द अपनी रचनाओं में एक “पोएटिक जस्टिस “भी देते हुए नजर आते हैं और कभी कभार प्रेम में एक शायराना उलाहना भी देते हुए कहते हैं -“आप को मेरी वफ़ा याद आयीखैर आज ये क्या याद आयी फिर मेरे सीने में एक हूक उठी फिर मुझे तेरी जफ़ा याद आयी “कलम के इस अद्भुत शिल्पी को तब तब  और शिद्दत से याद किया जायेगा जब जब सुराज में किये गए वादों की जफ़ा याद आएगी आम आदमी को । 

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