प्राथमिक शिक्षा का सूरतेहाल

चर्चा में पढ़ाई नहीं, मिड-डे-मील है

प्राथमिक पाठशालाओं में पकने वाला मिड-डे-मील हमेशा चर्चा में रहा है, शासन-प्रशासन, मीडिया और हर कहीं। कभी खाना न बनने, विषाक्त खाना खाकर बीमार होने या खाने में छिपकली, कीड़ों और गन्दगी की वजह से तो कभी दलित महिला द्वारा खाना तैयार कर सवर्ण बच्चों का धर्मभ्रष्ट करने की वजह से। इन पाठशालाओं की पढ़ाई और उनकी गुणवत्ता, उनमें कुछ जरूरी सुधार किए जाने की आवश्यकता कभी चर्चा का विषय नहीं बनी। गोया प्राथमिक शिक्षा का मतलब पढ़ाई नहीं, मिड-डे-मील ही होता हो। खाद्य पदार्थों में हुई बेतहाशा मूल्य वृद्धि की वजह से प्राथमिक शिक्षा पर पैनी नज़र रखने वाले भी कह रहे हैं कि महंगाई ने मिड-डे-मील को बेस्वाद कर दिया है। दलिया में दूध की जगह पानी, दाल में पानी और खीर में पानी की बात चर्चा में सुनाई देने लगी है। एन0जी0ओ0 वाले, ग्राम प्रधान और प्रधानाध्यापक कह रहे हैं कि अब मिड-डे-मील तैयार करने की लागत तीन रुपए तीस पैसे से लेकर सात रुपए तक हो गई है। ऐसे में भला पौष्टिक मिड-डे-मील दिया जाए तो कैसे? एन0जी0ओ0, प्रशासन, प्रधान और प्रधानाध्यापक सब इसी चिन्ता में गले जा रहे हैं। दरअसल स्कूली बच्चों की सेहत से ज्यादा इन्हें अपनी सेहत की चिन्ता सता रही है। एकबारगी प्राथमिक शिक्षा की इस तस्वीर और मिड-डे-मील से जुड़े समाचारों से भान होता है कि कभी पढ़ाई, सांस्कृतिक गतिविधियों और खेलकूद प्रतियोगिताओं के लिए जाने जाने वाले ये विद्यालय आज भोजनालय में तब्दील हो चुके हैं। अब यहां पढ़ाई और बाल विकास की गतिविधियों के अलावा सब कुछ होता है। विद्यालयों में अध्यापक के नाम पर एक या दो शिक्षा मित्र हैं। प्रधानाध्यापक के पास तो विद्यालय भवन निर्माण, छात्रवृत्ति वितरण, मिड-डे-मील जैसे तमाम लाभप्रद कामों के अलावा पल्स-पोलियो, चुनाव, जनगणना जैसे अलाभप्रद काम भी हैं। भवन निर्माण, मिड-डे-मील, छात्रवृत्ति वितरण जैसी सेवाओं से प्रधान और प्रधानाध्यापक सहित तमाम तन्त्र लाभान्वित हो रहे हैं। यह सब जिस बुनियादी शिक्षा के लिए किया जा रहा है, वहां से शिक्षा कोसों दूर जा चुकी है। यह बात अभिभावकों को भी पता है और अध्यापकों को भी। निजी स्कूलों के अध्यापकों को पल्स-पोलियो, चुनाव, जनगणना जैसे कार्य नहीं करने होते। इससे धनिकों के बच्चों की पढ़ाई बाधित नहीं होती।

सरकारी स्कूलों में छात्रवृत्ति और मिड-डे-मील के आकर्षण की वजह से छात्र पंजियन पुस्तिका में सैकड़ों की संख्या में नाम दर्ज हैं। इसी वजह से मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की स्थायी समिति की रपट में कहा जा रहा है कि पहली से पांचवी कक्षा तक के बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर घटी है। जबकि हकीकत दूसरी ही है। एक ओर मिड-डे मील के मद में आवंटित धनराशि खर्च नहीं हो पा रही है तो दूसरी और स्कूलों में पढ़ाने के लिए न तो माहौल है न अध्यापक। कुल मिलाकर देश के चरित्र निर्माण की प्रारिम्भक ईकाई, चारित्रिक पतन की सबसे घिनौनी ईकाई में तब्दील हो चुकी है।

इस बीच एक बार फिर केन्द्र सरकार ने मिड-डे-मील योजना में संशोधन प्रस्ताव को मंजूरी देकर 12 करोड़ बच्चों की सेहत सुधारने की घोषणा कर दी है। अब दाल की मात्रा 25 ग्राम से बढ़ाकर 30 ग्राम, सब्जी की 65 ग्राम से बढ़ाकर 75 ग्राम और तेल और वसा की मात्रा दस से घटाकर साढ़े सात प्रतिशत कर दी गई है। भोजन पकाने का खर्च ढाई रुपए से बढ़ाकर पौने चार रुपए कर दिया गया है। अब 25 छात्रों पर एक रसोइया, 100 तक छात्र होने पर दो और आगे प्रति 100 छात्र पर एक अतिरिक्त रसोइया रखा जा सकेगा जिन्हें 1000 रुपए प्रति माह मिलेगा। कुल मिलाकर खाद्य पदार्थों में 5-5 ग्राम की वृद्धि कर गरीबों के प्रति और ज्यादा संवेदनशील दिखने का प्रयास किया जा रहा है।

हम सभी जानते हैं कि जिन पाठशालाओं में मिड-डे-मील खिलाया जाता है वहां मात्र गरीबों के ही बच्चे पढ़ने के नाम पर जाते हैं, जिनमें दलितों और पिछड़ों की ही बहुतायत होती है। ग्रामीण इलाकों के इन पाठशालाओं में शायद ही कभी किलो-तराजू से तौल कर खाना पकाया जाता हो और शायद ही प्रतिदिन इसकी जांच सम्भव हो। ऐसे में इस नए संशोधन प्रस्ताव का वास्तविक फायदा होना मुश्किल है। इन पाठशालाओं में जितने बच्चों के नाम दर्ज हैं,उसके दसवें भाग के बराबर ही बच्चे मिड-डे-मील खाने आते हैं। अधिक से अधिक नाम तो इसलिए दर्ज करा दिए जाते हैं जिससे ज्यादा राशन, ज्यादा सरकारी धन मिल सके और जिसका सदुपयोग इस तन्त्र के तमाम पायदानों से लेकर प्रधान और प्रधानाध्यापक तक कर सकें। बच्चों की अधिक संख्या दिखाकर ही तो मिड-डे-मील योजना की सफलता के डंके पीटे जा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि एक बच्चे का नाम दो-दो सरकारी पाठशालाओं में दर्ज हैं और वह पढ़ने जाता है गांव में खुले निजी पाठशाला में। प्रधान और प्रधानाध्यापक को इन बच्चों के अभिभावक सहयोग इसलिए करते हैं जिससे उनके बच्चे को मुफ्त में प्रत्येक पाठशाला से तीन सौ रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति मिलती रहे। यानी कि एक बच्चे का नाम दो प्राथमिक पाठशालाओं में दर्ज होगा तो दोनों जगहों से कुल छ: सौ रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति मिल जायेगी। पहले जहां पटरी, टाट और श्यामपट्ट के सहारे गरीबों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ कर बेहतर स्थिति में पहुंच जाते थे वहीं अब शायद ही किसी गरीब का बच्चा मिड-डे-मील खा कर व्यावसायिक शिक्षा की ओर जा पाता है। व्यावसायिक शिक्षा की कमान निजी पाठशालाओं के हाथों में आ चुकी हैं जहां सक्षम लोगों के बच्चे पढ़-लिख कर अपना भविष्य बना रहे हैं। सचमुच यह मिड-डे-मील योजना बहुत ही चालाकी भरी योजना है जिसकी वजह से गरीब का बच्चा वहीं का वहीं रह जाए, उसकी औकात कटोरा लेकर आने और मिड-डे-मील खाने, कुछ रुपए की छात्रवृत्ति पाने तक बनी रहे और अमीरों के बच्चों के लिए व्यावसायिक शिक्षा के सारे अवसर उपलब्ध रहे। दोहरी शिक्षा नीति, जो दोहरी भाषा के साथ लाई गई थी, समाज के बहुसंख्यक गरीबों को ऊपर बढ़ने के रास्ते से वंचित कर, अमीरों को सुलभ रास्ते उपलब्ध कराने की सोची-समझी रणनीति थी। मिड-डे-मील योजना के धूर्त नीति-नियन्ता कहते हैं कि प्राथमिक पाठशालाओं के श्यापट्ट पर प्रत्येक दिन के खाने का मीनू लिखना अनिवार्य होगा। भई वाह! है न खूबसूरत नीति? इससे गरीबों के बच्चे, पढ़ाई न होने के बावजूद श्यापमट्ट पर मीनू पढ़कर मुंह में पानी भर लेंगे और शान्तिपूवर्क रसोइए की ओर टकटकी लगाए वक्त गुजार देंगे। ऐसी हास्यास्पद नीतियां बनाने वालों को पहले यह सोचना चाहिए कि श्यामपट्ट खाने का मीनू लिखने के लिए नहीं होता, बेहतर शिक्षा देने के लिए होता है।

प्राथमिक पाठशालाओं को बचाने का एक मात्र विकल्प यह होगा कि मिड-डे-मील जैसी दिखावटी और फिजूलखर्ची वाली योजनाओं को तुरत बन्द करते हुए सभी पाठशालाओं में कम से कम पांच से छ: योग्य स्थाई अध्यापकों की नियुक्ति कर उनके शिक्षण, प्रशिक्षण की प्रक्रिया पर निरन्तर नज़र रखने वाले जवाब देह तन्त्र को स्थापित किया जाए। अध्यापकों की जवाबदेही बेहतर परिणाम देने की होनी चाहिए न कि जनगणना, पल्सपोलियो, मतदान आदि में उलझाए रखने के लिए। गरीब बच्चों की मदद करने के लिए दूसरे तमाम तरीकें हैं। जैसे कि छात्रवृत्ति और अनाज, 80 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज कराने वाले बच्चों के अभिभावकों को मुहैया कराई जा सकती है। कम से कम पाठशालाओं को रसोईघर में तब्दील होने से बचाये बगैर प्राथमिक शिक्षा का भला नहीं होने वाला है।

-सुभाष चन्द्र कुशवाहा

1 COMMENT

  1. सुभाष जी

    आपने सवाल तो लाजमी उठाया है लेकिन इसमें आपने मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाओं को बंद करने की जो पैरवी कर डाली वो गलत है ? दरअसल मैं मेरे और आपके लिए भूख का सवाल प्रभावी नहीं है तो हम उसे नजरअंदाज करते चलते हैं लेकिन अध्ययन बताते हैं कि अधिकाँश बच्चे जो कि बीच मैं ही स्कूल छोड़ते हैं उसका एक प्रमुख कारण भूख भी है | भूखे बच्चे अपना ध्यान कक्षा मैं नहीं लगा पाते हैं और जिसके चलते वे बीच मैं ही स्कूल छोड़ देते हैं |

    मुझे लगता है आपने तमिलनाडु मैं इस योजना के बेहतर क्रियान्वयन को ना ही देखा है और ना ही अपने आलेख मैं उसका उपयोग करने कि जेहमत उठाई जिसके चलते ये एकतरफा और फौरी विश्लेषण जान पड़ता है | तमिलनाडु मैं ये १९६० से लागू है और वहां पर किचिन शेड है और बच्चों के लिए बर्तन,रसोइया आदि का अलग से प्रावधान है | बच्चों और भोजन के बीच मैं साक्षात्कार केवल दोपहर कि छुट्टी के समय ही होता है , वहां शिक्षा पर कोई फर्क नहीं पड़ता इससे | वहां बच्चों के स्कूल मैं ठहरने कि दर हमारे यहाँ से कई गुना है |

    आपके द्वारा अधोसंरचनात्मक विकास से सम्बन्ध मैं, बच्चों को भिखारी कि तरह ट्रीट किये जाने मैं, स्कूलों मों शिक्षा कि गुणवत्ता को लेकर उठाए सवालों पर सहमति है लेकिन योजना को बंद कर देने का विश्लेषण फौरी लगता है| थोरा और सोचिये |

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