प्रधानमंत्रियों से भी बड़ा काम

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व-स्वास्थ्य संगठन के एक ताजा सर्वेक्षण ने मुझे चौंका दिया। उससे पता चला कि हमारे देश में सात करोड़ से भी ज्यादा लोग रोज बीड़ी पीते हैं। बीड़ी फूंककर वे खुद को फेफड़ों, दिल और केंसर का मरीज तो बनाते ही हैं, हवा में भी जहर फैलाते हैं। उनके इलाज पर हर साल यह देश 80,550 करोड़ रु. खर्च करता है, क्योंकि अमीर लोग तो प्रायः सिगरेट पीते हैं। बीड़ी पीनेवालों में ज्यादातर गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, पिछड़े, आदिवासी, मजदूर आदि लोग ही होते हैं। इनके पास इतना पैसा कहां है कि वे गैर-सरकारी अस्पतालों की लूटमार को बर्दाश्त कर सकें। उनके इलाज का खर्च सरकार को ही भुगतना पड़ता है। लेकिन हमारी सरकारें इसी बात से खुश हैं कि बीड़ी पर टेक्स लगाकर वे लगभग 400 करोड़ रु. हर साल कमा लेती हैं। इन सरकारों को आप क्या बुद्धिमान कहेंगे, जो 80 हजार करोड़ खोकर 400 करोड़ कमाने पर गर्व करती हैं ? यही हाल हमारे यहां शराब का है। शराब पर लगे टैक्स से सरकारें, करोड़ों रु. कमाती हैं और शराब के कारण होनेवाली बीमारियों और दुर्घटनाओं पर देश अरबों रु. का नुकसान भरता है। लेकिन देश में कितनी संस्थाएं हैं, जो बीड़ी, सिगरेट और शराब के खिलाफ कोई अभियान चलाती हैं ? सरकारें यह काम क्यों करने लगी ? उनको चलानेवाले नेता तो वोट और नोट के गुलाम है। इस तरह के अभियान चलाने पर उन्हें न तो वोट मिल सकते हैं और न ही नोट ! यह काम हमारे साधु-संन्यासियों, मुल्ला-मौलवियों, पादरियों आदि को करना चाहिए लेकिन उन्हें अपनी पूजा करवाने से ही फुर्सत नहीं। अब ऐसे समाज-सुधारक भी देश में नहीं हैं, जो करोड़ों लोगों को इन बुराइयों से बचने की प्रेरणा दें। मैं तो कहता हूं कि भारत के लोगों को धूम्रपान, नशे और मांसाहार– इन तीनों से छुटकारा दिलाने के लिए कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन चलना चाहिए। किसी भी मजहब में मांसाहार को अनिवार्य नहीं बताया गया है। पिछले सप्ताह कोलकाता, रायपुर और अंबिकापुर के विश्वविद्यालयों में मैंने व्याख्यानों के बाद समस्त श्रोताओं से संकल्प करवाए कि वे अपने हस्ताक्षर हिंदी या स्वभाषा में करेंगे। धूम्रपान, नशे, मांसाहार, अंग्रेजी की गुलामी और रिश्वत लेने और देने के विरुद्ध यदि हम देश के 15-20 करोड़ लोगों से भी संकल्प करवा सकें तो हम इतना बड़ा काम कर देंगे, जितना कि सारे प्रधानमंत्री मिलकर आज तक नहीं कर सके हैं।

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  1. ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक को “प्रधानमंत्रियों से भी बड़ा काम” वाक्यांश पर लेख लिखने का काम सौंपा गया हो ताकि और नहीं तो तंबाकू, शराब, और मांस का सेवन करने वाले “ज्यादातर गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, पिछड़े, आदिवासी, मजदूर आदि” (गरीबी अमीरी और धर्मनिरपेक्षता की सीमाओं से कहीं ऊपर समाज में चोर-उचक्कों को मैं यहाँ अपनी ओर से नहीं गिनूंगा) अपने जीवन में करोड़ों चिरस्थाई-असुविधाओं को भुलाते उनके तुच्छ आमोद-प्रमोद को नष्ट करते दिखाई दे रहे वर्तमान प्रधानमंत्री को कोसा जा सके!

    विडंबना तो यह है कि जब “हमारे साधु-संन्यासियों, मुल्ला-मौलवियों, पादरियों आदि को … अपनी पूजा करवाने से ही फुर्सत नहीं” और “ऐसे समाज-सुधारक भी देश में नहीं हैं, जो करोड़ों लोगों को इन बुराइयों से बचने की प्रेरणा दें” लेख के शीर्षक और विषय-तत्व में कोई ताल-मेल न होने पर किसी मुए समाज-सुधारक को कुछ कर पाने की प्रेरणा तक न मिल पाएगी| उसे तो लेख में ऐसी अवस्था में क्या करना होगा भी नहीं मिल पाएगा!

    लेख के अंत में समाज-सुधारक लेखक बताते हैं कि उन्होंने “समस्त श्रोताओं से संकल्प करवाए कि वे अपने हस्ताक्षर हिंदी या स्वभाषा में करेंगे लेकिन यह नहीं बताया कि कोरे कागज़ पर नहीं तो उस कागज़ पर जो कुछ लिखा होगा वह अंग्रेजी में होगा कि हिंदी अथवा श्रोताओं की स्वभाषा में होगा| मुझ बूढ़े पंजाबी ने अब तक कांग्रेस-राज के आरम्भ से ही स्थापित शासकीय व सामाजिक संस्थाओं के केवल नाम ही हिंदी (अन्य भारतीय-मूल की भाषाओं का मुझे कोई अनुमान नहीं है) में “थोड़े में गुजारा होता है” जैसे देखे हैं| उन अधिकांश संस्थाओं का वर्णन व कार्यकलाप सब कुछ अंग्रेजी में है| मुझे इन महाशय जी को बताते खेद होता है कि किसी संस्था के हिंदी में नाम और अब इनके हिंदी में हस्ताक्षरों के बीच अधिक नहीं तो उतना ही अंतर है जितना आज भारत और चीन में है जो इन्होंने खो दिया है|

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