राहुल के लिए काँटों भरी राह

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डॉ आशीष वशिष्ठ

कांग्रेस युवराज राहुल गांधी के लिए यूपी विधानसभा चुनाव नाक का सवाल बन गए हैं। मिशन 2012 के लिए राहुल पिछले विधानसभा चुनावों के बाद से ही पसीना बहा रहे हैं, लेकिन मौजूदा जमीनी हालात जो तस्वीर पेश कर रही है, उसने राहुल और उनकी टीम की रातों की नींद उड़ी हुई है।

असल में यूपी विधानसभा चुनाव खासकर राहुल के लिए महज चुनाव भर न होकर अस्तित्व की लड़ाई भी है। इसमें उनकी कामयाबी और नाकामयाबी के कई मायने और मतलब निकलेंगे जो उनके राजनीतिक कैरियर, कांग्रेस के भविष्य और रणनीति को काफी हद तक प्रभावित करेंगे। राहुल और कांग्रेस दोनों भलीभांति इस बात को समझते हैं कि अगर राष्ट्रीय राजनीति में सम्मानजनक स्थान हासिल करना है तो देश के सबसे बड़े राज्य में सफल होना ही पड़ेगा।

 

राहुल ने अपने लिए किसके कहने पर सियासत की सबसे पथरीली और कांटों भरी माने जाने वाली उत्तर प्रदेश की जमीन को चुना, वो तो राहुल ही बेहतर जानते हैं लेकिन राजनीति के जानकारों का यह मानना है कि राहुल राष्ट्रीय राजनीति में कोई बड़ी जिम्मेदारी संभालने से पूर्व यूपी में खुद को और अपनी पार्टी को मजबूती से खड़ा करने के लिए जो दिन-रात एक कर रहे हैं। उसमें अगर वो कामयाब हो जाते हैं तो उनकी छवि एक जमीनी, जुझारू और लोकप्रिय नेता के रूप में उभरेगी, लेकिन अगर वो कामयाब नहीं होते तो उनको और कांग्रेस को जो नुकसान होगा, वो किसी ने सोचा ही नहीं है।

दरअसल, राहुल ने जात-पात की राजनीति के गढ़ उत्तर प्रदेश में खुद को सफल बनाने का जो जोखिम उठाया है, उसमें कदम-कदम पर कांटे बिछे हुए हैं। कुछ राजनीतिज्ञ विशेषज्ञ तो यहां तक कह रहे हैं कि राहुल गांधी के मिशन 2012 की हवा निकल चुकी है। अल्पसंख्यक उनसे नाराज हैं, दलित ऊहापोह की स्थिति में होने के बावजूद कांग्रेस के पाले में खड़े दिखाई नहीं दे रहे हैं और ब्राहमण वोट हर बार की तरह इधर-उधर बिखरे हुए हैं।

कांग्रेस के रणनीतिकारों और सलाहकारों ने ही राहुल को राष्ट्रीय राजनीति में कोई बड़ा उत्तरदायित्व संभालने से पूर्व उत्तर प्रदेश में खुद को साबित करने की सलाह दी होगी। राहुल भी सोच रहे होंगे कि वो सोशल इंजीनियरिंग और जात-पात की राजनीति के दम पर सूबे में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा और अल्पसंख्यक और पिछड़ों की वोट पर इतराने वाली सपा को पीछे धकेलकर सत्ता पर काबिज हो जाएंगे या फिर किंगमेकर की भूमिका में पहुंच जाएंगे, मगर ऐसा संभव नहीं लगता।

वैसे राहुल देश के सबसे बड़े राज्य में अगर खुद के पांव जमा लेते हैं, तो उनकी छवि खुद-ब-खुद एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरकर सामने आएगी। एक मायने में राहुल की सोच बड़ी परिपक्व और दूरदर्शी लगती है, लेकिन यूपी के राजनीतिक हालात और गूढ़ राजनीति का खेल समझने में बड़े-बड़े मात खा जाते हैं। वैसे भी यूपी फतह के मकसद में कामयाब होने के लिए राहुल ने जो सिपाहसलार चुने हैं, वो अरबी घोड़े नहीं टट्टू हैं।

ये भी सच है कि राहुल के प्रयासों से 2009 के आम चुनावों में पार्टी को उत्तर प्रदेश में अच्छी बढ़त मिली। उन्होंने भी यूपी कोटे से आधा दर्जन से अधिक मंत्री बनाकर जनता को एहसास करवाया कि वो उनके निर्णयों को मानते करते हैं और यूपी उनके एजेण्डे की प्राथमिकताओं में शुमार है। लेकिन अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम ने यूपीए सरकार की साख को आम आदमी की नजर में गिरा दिया। राहुल की पिछले कई सालों की मेहनत पर अन्ना के चंद दिनों के अनशन ने पानी फेर दिया है।

राहुल उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार और बाकी दलों पर भ्रष्टाचार में शामिल होने और दागियों का साथ देने के लिए भले ही कीचड़ उछालें, लेकिन जन लोकपाल बिल, कालेधन को देश में वापिस लाने और यूपीए-2 के शासनकाल में हुए करोड़ों रुपये के घोटालों ने कांग्रेस की किरकिरी ही की है।

दरअसल राहुल को अपनी कर्मस्थली बनाने से पूर्व राहुल को दस बार बदली हुई राजनीतिक स्थितियों, समीकरणों और वोट बैंक के गुणा-भाग को बारीकी से समझना चाहिए था, लेकिन उन्होंने बगैर किसी तैयारी और जमीनी आधार के सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत पूर्ण बहुमत से सत्ता में आयी बहुजन समाज पार्टी को टक्कर देने की चुनौती दे मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने का काम कर दिया। यूपी की सियासी जमीन कितनी कठोर, कंटीली और पेंचदार है, ये शायद उन्हें पहले एहसास नहीं रहा होगा।

लगभग पांच सालों से राहुल और कांग्रेस के बड़े नेता जितना ध्यान और तवज्जो उत्तर प्रदेश को दे रहे हैं उतना देश के दूसरे राज्यों पर नहीं। राहुल और सोनिया यूपी से सांसद हैं और एक सांसद की हैसियत से उनका अपने क्षेत्र में आना-जाना कोई नयी या अलग बात नहीं है, लेकिन राहुल अपने संसदीय क्षेत्र के अलावा सूबेभर में सक्रिय रहे।

पिछले वर्षों में मिशन 2012 के तहत राहुल ने यूपी में अपनी खोई जमीन वापिस पाने के लिए हर वो यत्न किया जिससे कांग्रेस से नाराज और दूर हो चुके वोटर उनके पाले में वापिस आ जाएं। दलित गांवों और बस्तियों का दौरा किया, दलितों के घर सोये, उनके साथ बैठकर उनके ही घर में बना खाना खाया, किसानों के मुद्दों और समस्याओं को जोर-शोर से उठाया, यूपी की सरकार को कदम-कदम पर घेरा, बावजूद इसके कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में पीठ सीधी होती न देखकर राहुल की पेशानी पर चिंता की लकीरें पड़ना स्वाभाविक है।

इसके इतर राहुल समझदारी दिखाते हुए देशभर में घूमकर जनसमस्याओं को देखते-सुनते और आम आदमी, किसान, मजदूर और गरीब के दुःख-दर्द को महसूस करते तो इससे उनकी छवि जमीनी और लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरती, लेकिन उन्होंने राजनीति के हिसाब से जटिल, खुरदरी और पथरीली उत्तर प्रदेश की जमीन का चुनाव करके ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ किया है।

 

हालांकि अब राहुल को भंवर में घिरा देखकर उनकी बहन प्रियंका चुनाव मैदान में बतौर स्टार प्रचारक उतर चुकी हैं। कांग्रेस चेयरपर्सन सोनिया गांधी भी बेटे के मिशन को कामयाब बनाने के लिए चुनावी रैलियों को संबोधित करेंगी। वास्तव में यूपी विधानसभा चुनाव राहुल के लिए अग्निपरीक्षा हैं, अगर वो इस चुनाव की गर्मी से तपकर सही सलामत सम्मानपर्वूक निकल जाते हैं तो उनका राजनीतिक कैरियर और कद दोनों राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ जाएगा।

अगर राहुल यूपी के मैदान में फिसड्डी साबित होते हैं तो उनके नेतृत्व क्षमता पर उंगुलिया तो उठेंगी ही, पार्टी के अन्दर भी उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को चुनौती मिल सकती है।

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