प्रियंका आ गई, लेकिन •••••••

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अनिल अनूप

मकर संक्रांति के दिन हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के आवास पर लंच का आयोजन किया गया था। उसमें कई कांग्रेस नेताओं के अलावा पत्रकार भी मौजूद थे। अनौपचारिक संवाद के दौरान कांग्रेसियों ने दो खबरों की खूब चर्चा की। एक, प्रियंका गांधी वाड्रा अधिकृत रूप से कांग्रेस में आ रही हैं। दूसरा, 2019 में केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार बनना लगभग तय है। कांग्रेस नेता दोनों ही खबरों को लेकर फुलफुला रहे थे। उनमें से एक खबर तो पुख्ता साबित हुई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी छोटी बहन को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया है और उन्हें 32 लोकसभा सीट वाले पूर्वी उप्र सरीखे बेहद संवेदनशील क्षेत्र की कमान सौंपी है। इस तरह प्रियंका नेहरू-गांधी वंश की छठी पीढ़ी की 12वीं सदस्य हैं, जो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में शामिल की गई हैं। वैसे वह बीते कई सालों से रायबरेली और अमेठी संसदीय क्षेत्रों में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करती रही हैं और उन्हें राहुल गांधी की ‘राजनीतिक सलाहकार’ भी माना जाता रहा है, लेकिन अब कांग्रेस अध्यक्ष के मुताबिक प्रियंका को उप्र में एक ‘मिशन’ के तहत भेजा गया है। कांग्रेस अध्यक्ष ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी पार्टी महासचिव बनाकर पश्चिमी उप्र का प्रभार सौंपा है। इन दोनों नेताओं की टीम के लिए लखनऊ में कांग्रेस दफ्तर को चमकाया जा रहा है। अब प्रियंका गांधी कांग्रेस के लिए ‘तुरुप’ साबित होंगी या ‘ब्रह्मास्त्र’ के तौर पर प्रहार करेंगी अथवा यह राहुल गांधी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ है, यह कांग्रेस की 2019 चुनाव की रणनीति ही बता पाएगी। उसी आधार पर दूसरी खबर का सच सामने आएगा कि 2019 में कांग्रेस की अगवाई में सरकार बनेगी या नहीं। कांग्रेस का ‘वंशवाद’ यही है कि नेहरू-गांधी परिवार का कोई भी सदस्य, बिना पेशेवर और सियासी काबिलियत के देश का प्रधानमंत्री या कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बन सकता है। राजीव और राहुल गांधी दोनों ही महासचिव थे और वे बाद में कांग्रेस अध्यक्ष बने। प्रियंका की नियुक्ति के बाद प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी प्रतिक्रिया देने से नहीं चूके। उन्होंने बिना नाम लिए कहा कि किसी के लिए परिवार ही पार्टी है, लेकिन हमारे लिए पार्टी ही परिवार है। बहरहाल इस ‘ताजपोशी’ की घोषणा के बाद कांग्रेसी कार्यकर्ता उछलने-कूदने लगे। आपस में लड्डू खिलाए गए, ढोल-नगाड़े बजने लगे, प्रियंका को लेकर नारे भी बुन लिए गए, मानो नियुक्ति से ही कांग्रेस सत्तासीन हो गई है। बेशक प्रियंका गांधी वाड्रा के उप्र में सक्रिय होने से कांग्रेस के एकदम ठंडे पड़े संगठन में गरमाहट जरूर आएगी, लेकिन प्रियंका इतनी करिश्माई नेता नहीं हैं कि कांग्रेस का बेड़ापार लगा सकें। उप्र में सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा के तौर पर दो ‘चक्रव्यूह’ प्रियंका के सामने होंगे। उन्हें ध्वस्त करने के बाद ही वह उप्र में कांग्रेस को पुनः स्थापित करने की सोच सकती हैं। प्रियंका के सामने आसान लक्ष्य नहीं है। पूर्वी उप्र की कमान वाकई ‘मिशन’ के तौर पर दी गई है। 2009 में कांग्रेस ने उप्र में जो 21 सीटें जीती थीं, उनमें ज्यादातर इसी क्षेत्र में थीं। वहां ब्राह्मणों, कुर्मी, गैर-जाटव दलितों और मुसलमानों ने कांग्रेस के पक्ष में वोट किए थे। 2019 में भी इसी जातीय समीकरण पर कांग्रेस की निगाहें हैं। सवर्णों और खासकर ब्राह्मणों के एक तबके में भाजपा के प्रति नाराजगी है। प्रियंका उन्हें कैसे साधती हैं, यह देखना शेष है। मुसलमान भी सोच रहे हैं कि केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार का मुकाबला कांग्रेस ही कर सकती है। सपा-बसपा का प्रभाव इतना नहीं है, लिहाजा मुस्लिम भी जीत के लिए कांग्रेस के पक्ष में जा सकते हैं। पूर्वी उप्र में वाराणसी, गोरखपुर, गाजीपुर, आजमगढ़, बलिया, मऊ, मिर्जापुर, बहराइच जैसी संसदीय सीटें हैं, तो अमेठी और रायबरेली भी हैं। बेशक चुनौतियां प्रियंका के सामने रहेंगी। एक और तुलना प्रियंका के संदर्भ में गौरतलब है कि कांग्रेस और उसके समर्थक प्रचार करेंगे कि ‘आज की इंदिरा गांधी’ आ गई हैं। प्रियंका के हाव-भाव, आवाज, आह्वान इंदिरा गांधी से बहुत मिलते हैं। 1984 में अपनी हत्या से कुछ दिन पहले ही इंदिरा गांधी ने कहा था-प्रियंका राजनीति में जरूर आएंगी। तब प्रियंका सिर्फ 12 साल की थीं। कांग्रेस इस भावुक तुलना को भी भुनाएगी। बहरहाल प्रियंका के राजनीति में आने से कांग्रेस की वह बंद मुट्ठी खुल गई है, जो कई साल से बंद थी और प्रियंका एक रहस्य बनी हुई थी। अब समय ही उनके करिश्मे और राजनीतिक प्रभाव को लिखेगा।

ये सवाल —-

प्रियंका गांधी वाड्रा के अधिकृत तौर पर राजनीति में प्रवेश पर बहसें अब लंबी चलेंगी। अभी तो कार्यभार भी नहीं संभाला, लेकिन सूत्रों के मुताबिक खबर सार्वजनिक हो गई है कि प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी सीट से ही चुनाव लड़ेंगे। 2019 चुनाव के लिए भाजपा ने नारा तय किया है-फिर एक बार मोदी सरकार। वाराणसी भी पूर्वी उप्र की एक महत्त्वपूर्ण सीट है। बेशक प्रियंका ने राजनीति में एक कदम आगे बढ़ाया है, लेकिन लंबी छलांग लगाना अभी शेष है। दरअसल कुछ ऐसे सवाल और सत्य कांग्रेस के साथ चिपके हैं, जिनका सामना प्रियंका को भी करना पड़ेगा। यदि प्रियंका के रणक्षेत्र की ही बात करें, तो कुछ उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार सांसद चुने गए। मुख्यमंत्री बनने से पहले भी वह सांसद थे। बेशक गोरखपुर उपचुनाव में भाजपा की हार हुई और साझा विपक्ष के कारण सपा उम्मीदवार की जीत हुई, लेकिन कांग्रेस के पक्ष में मात्र दो फीसदी वोट ही आए। 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को इसी सीट पर करीब चार फीसदी वोट हासिल हुए थे। गोरखपुर की तरह फूलपुर उपचुनाव में भी भाजपा पराजित हुई और सपा की जीत हुई, लेकिन मात्र 2.64 फीसदी वोट के साथ कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त हुई, जबकि 2014 में क्रिकेटर मुहम्मद कैफ को प्रत्याशी बनाया गया था, जिन्हें करीब छह फीसदी वोट मिले थे। निर्दलीय उम्मीदवार अतीक अहमद को उनसे करीब दोगुने वोट पड़े थे। फूलपुर सीट केशवप्रसाद मौर्य के उपमुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई थी। कांग्रेस को 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे उप्र में सिर्फ 7.53 फीसदी वोट मिले थे। उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव हुए, तो वोट औसत घटकर 6.25 फीसदी ही रह गया। ये नतीजे जमीनी हकीकत का खुलासा करते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता 2009 में जिन 21 सीटों को जीतने का राग अलापते रहे हैं, तब कांग्रेस का वोट औसत करीब 19 फीसदी था। इन 10 सालों में कांग्रेस रसातल की ओर बढ़ी है, लिहाजा प्रियंका के पास ऐसा कोई ‘चिराग’ नहीं है कि कांग्रेस का वोट औसत बढ़कर 35-40 फीसदी तक जा सके। सपा-बसपा भी सशक्त चुनौती हैं और भाजपा भी इतनी कमजोर नहीं हुई है। हाल ही में कुछ सर्वे सामने आए हैं, जिनमें भाजपा-एनडीए की करीब 250 सीटें दिखाई गई हैं और कांग्रेस 100 से भी कम सीटों तक सिमट रही है। अभी तो चुनाव प्रचार विधिवत शुरू होने में वक्त है और उम्मीदवार भी तय किए जाने हैं। 2019 के चुनाव कांग्रेस के लिए ‘करो या मरो’ की लड़ाई हैं। प्रियंका के संदर्भ में एक भावुक दलील दी जा रही है कि वह अपनी दादी एवं दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं। क्या 2019 की नौजवान और आधुनिक सोच की पीढ़ी इसी तुलना पर कांग्रेस के पक्ष में वोट कर सकती है? इंदिरा गांधी की हत्या को भी 34 लंबे साल बीत चुके हैं। इंदिरा देश की आजादी के बाद कांग्रेस में सक्रिय हुईं और चार बार प्रधानमंत्री भी चुनी गईं। उन्होंने आपातकाल जैसा अलोकतांत्रिक और संविधान-विरोधी निर्णय भी देश पर थोपा था। उन्होंने कई ऐतिहासिक काम भी किए, लेकिन वह कालखंड और पीढि़यां गुजर चुकी हैं। जो युवा 25-35 साल की उम्र के हैं, उन्हें इंदिरा गांधी की सरकारों और उनकी सियासी शख्सियत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। माहौल और वक्त बदल चुके हैं। गांव का औसत मतदाता भी जागरूक हो चुका है। आम वोटर भी राहुल और प्रियंका गांधी से सवाल करेंगे कि आपने हमारे लिए क्या किया है, जिसके आधार पर कांग्रेस का आकलन किया जा सके और हम आपको वोट दे सकें? ‘दूसरी इंदिरा’ सरीखे भावुक जुमले बेहद सीमित रूप से प्रभावी होंगे। एक ऐसा महत्त्वपूर्ण सवाल भी है, जो प्रियंका की निजी जिंदगी से भी जुड़ा है। तकनीकी और कानूनी तौर पर अब वह गांधी नहीं, बल्कि ‘वाड्रा’ हैं। उनके पति रॉबर्ट वाड्रा पर गंभीर घोटालों के आरोप हैं। आयकर, प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई सरीखी सरकारी जांच एजेंसियां अपना काम कर रही हैं। निश्चित है कि उन आरोपों और गोलगपाड़ों की ‘काली छाया’ प्रियंका पर भी पड़ेगी। उनकी जवाबदेही क्या होगी? एक और तथ्य दिखाया जा रहा है कि 47 वर्षीय प्रियंका करीब 450 करोड़ रुपए की  मालकिन हैं। न नौकरी और न ही कारोबार…तो इन 450 करोड़ रुपए का भी जवाब देना होगा। यदि भाजपा इन तथ्यों का दुष्प्रचार करने लगे, तो चुनाव किसी भी दिशा में जा सकते हैं। प्रियंका से जुड़े कई और सवाल भी हैं, जिन्हें यहां उठाना संभव नहीं है, लेकिन आने वाले समय में उन सवालों के सच तो जरूर सामने आएंगे।

2 COMMENTS

  1. (१) कुछ मतदाता वैयक्तिक लाभालाभ से ही प्रेरित होता है. सुधी मतदाता सारासार का विचार करता है, कुछ मतदाता जाति के आधार पर भी मतदान करता है.(२) पर जानकार मतदाता राश्ट्रीय हितों की दृष्टि से मतदान करता है. (३) कांग्रेस का ऐतिहासिक रिश्वतशाही रेकॉर्ड जानने वाले, उसे मत नहीं देंगे.(४) वाड्रा के भ्रष्ट इतिहास को जानने वाले प्रियंका और कांग्रेस का विरोध ही करेंगे (५) कांग्रेस की वंशवादी छवि को और घोटालों को कोई छिपा नहीं सकता. —भा. ज. पा. ने सौम्यता से इस सच्चाई को उजागर करना चाहिए. जो मोदी और शाह एवं योगी जी जानते हैं. शब्दों का संयत प्रयोग काम आ सकता है.==> ॐ भाजपा अवश्य जीतेगी. कोई शंका नहीं. प्रतिशत भी शायद ही कुछ घट सकता है. बाकी % बढ भी सकता है. मोदी का रिकार्ड अद्भुत है. ॥जय भारत्त॥ लेखक अनिल अनूप को धन्यवाद.

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