प्रवेश: एक घना निबिड़ अरण्य। जलाशय के किनारे, प्राचीन खंडहर शिवाला विलुप्तसा। पगडंडी परभी पेड पौधे। मिट चुकी पगडंडी। बरसों से कोई यात्री ही नहीं। श्रद्धालु तो, निष्कासित हैं। कवि वहां पहुंचता है। प्रगाढ शांति -भंग करने की झिझक, और द्विधा के क्षण पर, यह कविता-एक सबेरे, चेतस की सितारी यूं, झन झना कर गई।
सरवर-जल पर तैरता,
खंडहर शिवालय।
शीर्ण ध्वज, बटकी जटाएं,
निःशब्द, नीरव।
चहुं दिश बहे, घन निबिड-
बन, एकांत शांत।
योजनो, योजनो तक,
निर-बाट निर्जन।
झूलती बट की जटाएं।
मध्य में खंडहर शिवाला।
शिवजी करते वास-
इस एकांत में।
जटा जूट में, खो चुका,
खंडहर शिवाला।
छतपर लटकी ,
जीर्ण जर्जर शृंखला।
शृंखला पर लटका घंट,
घंटपर लोलक लटका,
लोलक पर लटका शब्द,
ही समाधि-मग्न!
कई बरसों से सुन रहा।
अनाहत नाद!
अनाहत नाद।
अना–हत–नाद।
बस एकांत।
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अब न कोई घंटी बजाए।
कोई शब्द को जगाए ना।
रूद्र शिव बैठे हैं, तप में।
कोइ पगध्वनि ना करें।
भंग शांति ना करें।
सरवर जलपर तैरने
दे खंडहर शिवालय।
शीर्ण ध्वज, बटकी जटाएं,
निःशब्द नीरव।
पहले भी यह एक कविता सुनी है आपसे , फिर यहाँ पढ़कर एकांत शिवालय का स्मरण हो गया | सुंदर रचना |
बहुत ही अच्छा लगा पढकर। कश्मीर की दुर्दशा का सही वर्णन है इसमें।
क्या कहूँ सुभाष जी? असमंजस में हूँ.
अनुमान था कि, आप को कविता पसंद पडेगी.
सच, क्या दशा कर दी है; नन्दनवन की?
चोरी तो चोरी, और ऊपर से सीना जोरी?
===> अब शासन समस्या का संतोषजनक हल निकालने में सफल हो यही प्रार्थना.
खंडहर शिवाला – कई बरसों से सुन रहा हूँ अनाहत नाद। बस एकान्त। रुद्र शिव बैठे….भंग शान्ति न करें।
मनीषी मधुसूदन जी ने निर्जन एकान्त वन में , आश्रम जैसे वातावरण में जो शब्द चित्र खींचा है ,वह आँखों के सामने आकर मन पर छा गया । और… मन वहीं भक्ति में रम सा गया । बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !!
गहन नीरव एकान्त में, निर्विकार ध्यान-मग्न शिव का प्रभावी भाव-चित्र अंकित किया है डॉ. मधुसूदन जी की लेखनी ने -केवल प्रकृति है वहाँ और छाँह दिये एक पुरातन वट-वृक्ष !
आपकी टिप्पणी से अनुगृहीत -मधुसूदन
धन्यवाद।
bahut sundar hai ji