होनहार की कसौटी

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-सतीश सिंह

विश्‍वविद्यालयों और उससे संबद्ध कॉलेजों में दाखिले की वर्तमान प्रक्रिया के ऊपर गाहे-बगाहे लोग ऊंगली उठाते रहे हैं। इसका मूल कारण सभी बच्चों में नामचीन कॉलेजों में दाखिला लेने की चाहत का होना है। कोई भी इस चूहा दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता है। इसमें बच्चों की भी गलती नहीं है। मूलत: हमारी शिक्षा व्यवस्था और रोजगार सृजित करने वाले संस्थानों की सोच इस कदर संकुचित है कि वे कुएँ से बाहर निकलकर सोच ही नहीं पाते हैं। उनका मानना है कि जो बच्चा लगातार हर परीक्षा में अव्वल आ रहा है उसी को सिर्फ होनहार माना जा सकता है। जो छात्र इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं वे बेवकूफ हैं।

इसमें दो मत नहीं है कि स्कूल-कॉलेजों में प्राप्त अच्छे अंक छात्र-छात्राओं की पढ़ाई के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को बताते हैं, किंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि हम इसे मेधावी होने या न होने का प्रमाण मानें। किसी विषय में कम या ज्यादा अंक प्राप्त करने से किसी भी छात्र को मेघावी या कमअक्ल नहीं माना जा सकता है।

हर विषय में हर छात्र की रुचि का होना जरुरी नहीं है। महान वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन की रुचि केवल भौतिक विज्ञान में थी। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइन्स्टिन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। समाज में ऐसे जीनियसों के सैकड़ों उदाहरण बिखरे पड़े हैं।

दूसरा पहलू यह है कि परीक्षा के समय में कोई छात्र बीमार हो सकता है या फिर उसकी रुचि पढ़ाई के प्रति गलत संगत के कारण शुरुआती दिनों में नहीं हो सकती है। अक्सर देखा जाता है कि ऐसे छात्र सही वक्त पर मेहनत करके हमेशा जागरुक रहने वाले छात्रों से हर परीक्षा में बाजी मार ले जाते हैं। यहाँ फंडा ‘जब जागा तभी सवेरा’ वाला काम करता है। जिस छात्र के अंदर जीवन में सफलता हासिल करने की जिजीविषा जागरित हो जाती है वह हर कक्षा में तृतीय श्रेणी से उर्तीण होने के बावजूद भी अच्छी नौकरी पाने में सफल हो जाता है। नौकरी को यदि सफलता का पैमाना नहीं भी मानें तो भी ऐसे कुछ करने के लिए कृत संकल्पित छात्र जीवन की नई ऊंचाईयों को छूने में सफल हो जाते हैं। मूलत: बिहार के छपरा जिले के रहने वाले जर्नादन प्रसाद, रमेष कुमार और योगेन्द्र प्रसाद ने ‘सारण रिन्यूबल प्राईवेट लिमिटेड’ के माघ्यम से जिस तरह से छोटे स्तर पर बिजली का उत्पादन करके उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में अंधेरा भगाने का अलख जगाया है, वह निहायत ही काबिले तारीफ है। ‘सारण रिन्यूबल प्राईवेट लिमिटेड’ के इन तीनों प्रमोटरों का अकादमिक रिकार्ड बेहद ही साधारण रहा है।

‘थ्री इडियट’ में दिखाये गए फंडे को भी हम नकार नहीं सकते हैं। जरुरी नहीं कि हर बच्चा इंजीनियर या डॉक्टर बने। आज दुनिया में करने के लिए इतने सारे काम हैं कि आप किसी को मूर्ख मान ही नहीं सकते हैं। यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि आप किसको होनहार मानते हैं। अगर भारतीयों के चश्‍मे से देखा जाए तो वाइल्ड लाइफ पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक निहायत दर्जे के बेवकूफ हैं। जबकि हकीकत में वे बेहद ही जहीन और समाज को कुछ देने के लिए प्रतिबद्ध लोग हैं जो हर समय पूरी शिद्दत के साथ अपने कार्य को पूरा करने के लिए दिन-रात घर-परिवार को छोड़कर लगे रहते हैं।

अभी हाल ही में उत्तरप्रदेश के बाढ़ग्रस्त इलाके में एक कारीगर ने 15 हजार रुपये खर्च करके ज्यादा माईलेज देने वाले कठौती के स्टीमर का निर्माण किया था। स्टीमर बनाने से पहले तक यह कारीगर लोगों की नजरों में कमअक्ल और समाज के हाशिए पर रहने वाले तबके का सदस्य माना जाता था। एनडीटीवी पर खबर बनने और सभी अखबारों की लीड स्टोरी बनने के बाद आज हर कोई उसकी शान में कसीदे पढ़ रहा है।

दरअसल होनहार कौन है इसे तय करने के मानकों के बारे में हमारे देश में अक्सर बदलाव आता रहता है। हाल ही के दिनों में शिक्षा संस्थानों, रोजगार के अवसर पैदा करने वाले संस्थानों और आम लोगों की राय में फिर से आमूल-चूल परिवर्तन आया है।

बदले परिवेश में स्कूल-कॉलेजों में प्राप्त कर रहे अच्छे अंक वाले बच्चे ही मेघावी माने जा रहे हैं। जो बच्चे बारहवीं तक लगातार अच्छे अंक लाकर नामचीन कॉलेज में दाखिला लेने में सफल रहते हैं और पुनश्‍च: कॉलेज में अंकों की बाजीगरी में बाजी मारते हुए नौकरी के लिए आवेदन करने लायक अर्हता अंक प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो उन्हें जहीन बच्चा माना जाता है।

सबसे ज्यादा रोजगार सृजित करने में हमेषा से आगे रहने वाले बैंकिंग क्षेत्र में भी आजकल बैंक की नौकरी के लिए उन्हीं अभ्‍यर्थियों को योग्य माना जा रहा है जिन्होंने स्कूल से लेकर कॉलेज तक के सफर में हमेशा प्रथम श्रेणी अच्छे अंकों के साथ प्राप्त किया है। जबकि बैंक के कार्य-कलाप को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रथम श्रेणी उम्मीदवार की जरुरत कदापि नहीं है। अगर थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि बैंक के कर्मचारियों का अकादमिक ट्रेक रिकार्ड अच्छा होना चाहिए, तब भी हाल में बैंक में भर्ती किये गए अच्छे अकादमिक ट्रेक रिकार्ड वाले कर्मचारियों व अधिकारियों का बैंकिंग काम-काज एवं सामान्य ज्ञान संदेहास्पद रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पहले खराब अकादमिक ट्रेक रिकार्ड वाले कर्मचारियों व अधिकारियों के बलबूते भी बैंकों में सुचारु रुप से कार्य हो रहा था। लिहाजा इस मामले में सिर्फ अंग्रेजी और निजी बैंकों की नकल करना कहीं से भी समीचीन नहीं है। कंठलंगोट पहनने और अंग्रेजी बोलने से कोई जहीन नहीं हो जाता।

वैसे ऐसे लकीर के फकीर वाले माहौल में भी जवाहर लाल नेहरु विश्‍वविद्यालय सहित कुछ अन्य विश्‍वविद्यालय बारहवीं या कॉलेज में प्राप्त अंकों को ज्यादा तहजीह नहीं देते हैं। ये विश्‍वविद्यालय अपने यहाँ विभिन्न संकायों में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा का आयोजन करते हैं। इनका मानना है कि इन संकायों में प्रवेश परीक्षा में शामिल होने के लिए सिर्फ न्यूनतम अर्हता अंक का होना ही जरुरी है।

देर आयद दुरुस्त आयद वाली कहावत को यदि सही मानें तो पूरे देश में विविध विश्‍वविद्यालयों और उनके संबद्ध महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की मानव संसाधन मंत्रालय की ताजा पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

आगामी सत्र से देश के 40 केन्द्रीय विश्‍वविद्यालयों और उससे संबद्ध महाविधालयों में संयुक्त प्रवेश परीक्षा का आयोजन किया जाएगा। गौरतलब है कि इस मामले में विभिन्न विश्‍वविद्यालय और उससे संबद्ध महाविधालय विभिन्न संकायों में प्रवेश के लिए बारहवीं की परीक्षा में प्राप्त अंक या प्रवेश परीक्षा में प्राप्त अंक में से किसी एक को वरीयता देने के लिए स्वतंत्र होंगे। बावजूद इसके प्रवेश परीक्षा में उर्तीण बच्चों को आरक्षण देने का आधार क्या होगा? यह मुद्दा अभी तक अनसुलझा है। वैसे विश्‍वविद्यालयों के उपकुलपतियों के बीच आम सहमति बन चुकी है। फिर भी शिक्षाविदों, अभिभावकों व पूरे देश में इस पहलू पर आम सहमति का बनना अभी भी शेष है।

पड़ताल से स्पष्ट है कि भारत की शिक्षा प्रणाली की वर्तमान व्यवस्था में अनेकानेक खोट हैं। चाहे बच्चों को बारहवीं के आधार पर कॉलेजों में दाखिला देने का मामला हो या तथाकथित अच्छे अकादमिक रिकार्ड वाले बच्चों को नौकरी के लिए आयोजित प्रवेश परीक्षा में शामिल होने देने का मामला हो, हर बार इन मुद्दों पर अनगिनत बच्चों के साथ अन्याय किया जा रहा है।

सरकार, शिक्षाविद, रोजगार सृजित करने वाले संस्थान और अभिभावकगण सभी फिलवक्त तथाकथित मेधावी बच्चों की फौज का उत्पादन करने में लगे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कोई भी मेघावी की परिभाषा समझने के लिए जहमत उठाना नहीं चाहता। सभी पुरानी पगडंडी पर चलना चाहते हैं। कोई नये रास्ते पर नहीं चलना चाहता।

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  1. अगर समस्या बढ रही, शिक्षक जिम्मेदार। सब प्रश्नों का हल करे, शिक्षा और संस्कार्। शिक्षा का संस्कार, भूल कर जुङा देह से। अपना ‘पेट भरो’ , नारा चल गया भूल से।कह साधक कविराय, भूल से बढे समस्या। शिक्षा जिम्मेदार, बढ रही अगर समस्या।sahiasha.com

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