-प्रमोद भार्गव- डब्ल्यूटीओ में अपने रूख पर अडिग रहकर भारत सरकार ने जता दिया है कि उसकी पहली प्राथमिकता देश के करोड़ों गरीब लोगों के भोजन की बुनियादी जरूरत है, न कि व्यापारिक हित साधना! भारत के अड़ियल रवैये के चलते जिनेवा वार्ता असफल हो गई। इस असफलता का दोष डब्ल्यूटीओ के सदस्य देश भारत पर मड़ रहे है। जबकि भारत केवल इतना चाहता था कि डब्ल्यूटीओ के जो देश सकल घरेलू फसल उत्पाद के मूल्य की खाद्य सब्सिडी पर दस प्रतिशत से ज्यादा खर्च नहीं करने की जो बाध्यकारी शर्त रख रहे हैं, वह भारत को मंजूर नहीं है। विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व में विश्व व्यापार सुविधा नियमों में सुधारों के सिलसिले में भारत का कठोर रूख सही दिशा में बढ़ाया गया कदम है, क्योंकि प्रतिबद्धता विश्व व्यापार से कहीं ज्यादा देश के गरीब व वंचित तबकों की खाद्य सुरक्षा के प्रति ही होनी चाहिए। लिहाजा राजग सरकार ने संप्रग सरकार की नीतिगत पहल का जेनेवा में 160 सदस्यों वाले डब्ल्यूटीओ में अनुसरण करते हुए सरलीकरण व्यापार अनुबंध (ट्रेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर नहीं किए। इस करार की सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश, अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता। जबकि भारत के साथ विडंबना है कि नए खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में आ गई है, इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराषि की जरूरत पड़ेगी वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठेगी। इस लिहाज से इस मुद्दे पर अडिग बने रहना जरूरी था। भारत पर अमेरिका, यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया के दबाव बरकरार थे। ये देश अपने व्यापारिक हितों के लिए चाहते थे कि भारत समेत जो गरीब व विकासशील देश है, वे सरलीकरण व्यापार अनुबंधों की शर्तों को मानें। जबकि इस अनुबंध की खाद्य सुरक्षा संबंधी षर्त भारत के हितों के विपरीत थी। दिसंबर 2013 में भी इन्हीं विशयों को लेकर इंडोनेशिया के बाली शहर में डब्ल्यूटीओ की बैठक हुई थी, तब पूर्व वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने भी इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। दरअसल दुनिया के विकासषील देशों की खाद्य सुरक्षा की सब्सिडी को नियंत्रित करने की पृश्ठभूमि में विकसित देष हैं। इसके उलट जी-33 भारत समेत 46 देशों का ऐसा समूह है, जो अनाज की सरकारी खरीद और गरीब व वंचित समूह को खाद्य सहायता देने के अधिकार के मुद्दे पर अडिग है। विकसित देश चाहते थे कि भारत जैसे विकासषील देष अपनी खाद्य सब्सिडी मसलन सार्वजानिक वितरण प्रणाली के जरिए दी जाने वाली सरकारी इमदाद को मौजूदा नियमों के दायरे में रखें। यानि, सब्सिडी को कुल कृषि उत्पाद मूल्य के 10 प्रतिशत तक सीमित कर दें। इसके लिए विकसित देश अंतरिम शांति उपबंध के तहत चार साल की मोहलत देना चाहते थे। इसके बाद यदि सब्सिडी की सीमा 10 फीसदी के ऊपर निकली तो इसे टीए़फए की शर्तों का उल्लंघन माना जाता और शर्त तोड़ने वाले देश पर जुर्माना लगाया जाता। दरअसल, इस सीमा का निर्धारण 1986-88 की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के आधार पर किया गया था। इन बीते ढाई दशक में महंगाई ने कई गुना छलाांग लगाई है। इसलिए इस सीमा का भी पुनर्निर्धारण जरूरी था। यही वह दौर रहा है, जब भूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद की अवधरणा ने बहुत कम समय में ही यह प्रमाणित कर दिया कि वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर अधिकतम मुनाफा बटोरने का उपाय भर है। टीएफए की सब्सिडी संबंधी षर्त,औद्योगिक देष और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इसी मुनाफे में और इजाफा करने की दृष्टि से लगाई गई थी। जिससे लाचार आदमी के आजीविका के संसाधनों को दरकिनार कर उपभोगवादी वस्तुएं खपाई जा सकें। नव-उदारवाद की ऐसी ही इकतरफा व विरोधाभासी नीतियों का नतीजा है कि अमीर और गरीब के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। दरअसल देशी व विदेशी उद्योगपति पूंजी का निवेश दो ही क्षेत्रों में करते है, एक उपभोक्तावादी उपकरणों के निर्माण और वितरण में, दूसरे प्राकृतिक संपदा के दोहन में यही दो क्षेत्र धन उत्सर्जन के अहम स्त्रोत हैं। उदारवादी अर्थव्यस्था का मूल है कि भूखी आबादी को भोजन के उपाय करने की बजाय, विकासषील देश पूंजी का केंद्रीयकरण एक ऐसी निश्चित आबादी पर करें, जिससे उसकी खरीद क्षमता में वृद्धि हो। छठा वेतनमान मनमोहन सिंह सरकार ने इसी उदारवादी अर्थव्यस्था के पोषण के लिए लागू किया था। जाहिर है, अंततः यह व्यवस्था सीमित मध्यवर्ग और उच्चवर्ग को ही पोशित करने वाली है। लिहाजा डब्ल्यूटीओ को गरीब देशों की रियायतों से जुड़ी लोक कल्याणकारी योजनाएं आंखों में खटकती रहती हैं। भारत जैसे विकासशील देश अपनी आबादी के कमजोर तबके के लोगों की खाद्य सुरक्षा जैसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बड़ी मात्रा में अनाज की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद करते हैं और फिर इसे रियायती दरों पर पीडीएस के जरिए सस्ती दरों पर बेचते हैं। यहां तक की रूपया किलो गेंहूं और दो रूपए किलो चावल बेचे जा रहे हैं। मघ्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सरकार तो आयोडीनयुक्त नमक भी रूपैया किलो दे रही हैं। यदि गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति के अजीविका के ये संसाधन रियायती दरों पर नहीं मिलेंगे तो कई देशों की बढ़ी आबादी भूख के चलते दम तोड़ देगी। भारत खाद्य सुरक्षा पर दी जाने वाली सब्सिडी को इसलिए नियंत्रित नहीं कर सकता, क्योंकि खाद्य सुरक्षा का दायरा बढ़कर कुल आबादी का 67 फीसदी हो गया है। मसलन करीब 81 करोड़ लोगों को रियायती दर पर अनाज देना है। अभी तक सालाना 85 हजार करोड़ रूपए खाद्य सब्सिडी पर दिए जा रहे थे, खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद यह सब्सिडी बढ़कर 1.24 करोड़ रूपए हो चुकी है। इसे पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री बड़ा राजकोषीय घाटा बता रहे हैं। जबकि 2014-15 के अंतरिम बजट में ही औद्योगिक घरानो को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से मनमोहन सिंह सरकार ने करों की छूट के बहाने 5.73 लाख करोड़ रूपए की छूंटें दी थीं। जबकि भारत का वर्तमान में वित्तीय घाटा 5.25 लाख करोड़ रूपए है। जाहिर है, इस घाटे की पूर्ति उद्योग समूहों को दी गई छूट से आसानी से की जा सकती थी। लिहाजा घाटे का रोना फिजूल है। दूसरी तरफ भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में फसलों के समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना वृद्धि करने की बात कही हैै। यदि मोदी सरकार इस वादे पर अमल करती है तो स्वाभाविक है, सब्सिडी खर्च और बढ़ेगा। सरकार को इस वादे पर इसलिए अमल करना जरूरी है, क्योंकि उसे देश की 320 ग्रामीण संसदीय सीटों पर जीत हासिल हुई है। ऐसे में किसान और गरीब के हितों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसीलिए सरकार टीएफए पर अडिग है। भारत के इस रूख का समर्थन क्यूबा, वेनेजुएला और बोलिविया ने भी किया हैं। भारत के सख्त रवैये से अमेरिका की चौधराहट को जबरदस्त धक्का लगा है। लिहाजा अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि माईक फ्रीमेन ने कहा है कि ‘हम इसे लेकर काफी निराश हैं, कि व्यापार सुविधा के मामले में प्रतिबद्धताओं से पीछे हटने के कारण डब्ल्यूटीओ संकट के कगार पर पहुंच गया है‘। इस मुद्दे पर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे अमीर देशों और भारत, दक्षिण अफ्रीका तथा अन्य आर्थिक रूप से सक्षम होने की दिषा में बढ़ रहे देशों के बीच मतभेद उभरकर सामने आ गए हैं। दरअसल डब्ल्यूटीओ का विधान बहुमत को मान्यता नहीं देता। इसमें प्रावधान है कि किसी भी एक सदस्य देश की आपत्ति करार को यथास्थिति में बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। इसलिए अमेरिका को कहना पड़ रहा है कि डब्ल्युटीओ संकट के कगार पर है। अब तो अन्य पश्चिमी देश और वहां के मीडिया ने भी भारत को कोसना शुरू कर दिया है। लेकिन हकीकत यह है कि पूंजीपति देशों की आंखो पर निजी स्वार्थ का पर्दा पड़ा है। बहरहाल भारत में इस जनहितैषी मुद्दे पर दृढ़ रहकर जता दिया है कि पश्चिमी देशो के औद्योगिक हितों पर वह अपने देश की गरीब जनता की रोटी दांव पर नहीं लगा सकता ? भारत की इस दृढ़ता ने एकधु्रवीय अर्थ व्यवस्था में तेजी से बदलाव आने के संकेत भी दे दिए हैं।